यद्यपि कर्ण जानता था कि दुर्योधन अच्छा नहीं कर रहा है तथापि उसने दुर्योधन का समर्थन क्यों किया?
लेखक अजीत कुमार, नवम्बर २०१९
इस प्रश्न के उत्तर से पूर्व एक दृष्टांत ध्यातव्य है-
आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती जब उदयपुर, राजस्थान में थे तब वहां एक दिन उदयपुर के महाराजा महाराणा सज्जनसिंह जी को मनुस्मृति का पाठ पढ़ाते हुए कहा कि–
‘‘यदि कोई अधिकारी धर्मपूर्वक आज्ञा दे तभी उसका पालन करना चाहिए। अधर्म की बात नहीं माननी चाहिए।”
इस पर सरदारगढ़ के ठाकुर मोहनसिंह जी ने कहा कि महाराणा हमारे राजा हैं, यदि इनकी कोई बात हम अधर्मयुक्त बतलाकर न मानें तो ये हमारा राज छीन लेंगे। इस पर स्वामीजी ने कहा कि –
‘‘धर्महीन हो जाने से और अधर्म के काम करके अन्न खाने से तो भीख मांगकर पेट का पालन करना अच्छा है।”
इस घटना में स्वामीजी ने उदयपुर के महाराजा के भय से सर्वथा शून्य होकर धर्म को सर्वोपरि महत्व दिया।
इससे यह भी शिक्षा मिलती है कि किसी भी मनुष्य को अपने आश्रयदाताओं व अधिकारियों की धर्म विरुद्ध आज्ञाओं को नहीं मानना चाहिये चाहे इससे उसकी कितनी भी हानि क्यों न हो।
कर्ण दुर्योधन के प्रति ऋणी था क्योंकि दुर्योधन ने उसे सामाजिक प्रतिष्ठा दिलायी थी। सामाजिक प्रतिष्ठा की रक्षा में वह धर्मरक्षा भूल गया था। आजकल के नेता भी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए क्या धर्म का त्याग नहीं करते। लोकप्रतिष्ठा की खातिर क्या क्या दांव पर नेत्री अभिनेत्री नहीं लगातीं।
अगर दानवीर कर्ण को धर्म का इतना ही तत्त्वज्ञान होता तो वह कभी भी दुरात्मा दुर्योधन का साथ नहीं देता। श्रीकृष्ण के लाख समझाने पर भी वह दुर्योधन के अधर्म का साथी बना रहा। मित्रता सदैव समान विचार वालों में गहरी होती है। यह दुर्योधन कर्ण की मित्रता में भी परिलक्षित होती है।
कर्ण की दानशीलता भी सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के निमित्त रहा होगा और उसकी दानशीलता को धर्म से जोड़कर देखने की अपेक्षा महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के साधन के रूप में देखना अपेक्षित है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें