~ अजीत कुमार
भूत प्रेत का सच जानने से पहले मन का शुद्ध होना जरूरी है क्योंकि यह मन ही है जो भूत प्रेत की रचना करता है अथवा उसको देखता व विश्वास करता है। बिना मन के भूत भी नहीं हो सकता। लेकिन क्या होगा यदि यह मन ही शुद्ध न हो। मनः सत्येन शुद्धयती अर्थात मन सत्य से शुद्ध होता है लेकिन मन पर पहले से पूर्वाग्रह का मल हो तो मन वही देखता व सुनता है जो वह देखना सुनना चाहता है। इसलिए जो भूत प्रेत मानते हैं और वे जो इसे पढ़ने से पहले ही विचार बना चुके हैं, उनको कुछ विदित नहीं होगा।
अगर किसी की आँख नष्ट हो जाये तो वह देख नहीं सकता। पैर काट दी जाये तो चल नहीं सकता। कहने का अर्थ यह है कि बिना साधन के कोई कार्य साध्य नहीं। आत्मा को सांसारिक कार्यों को करने के लिए स्थूल शरीर की कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेंद्रियों जैसे साधन की जरूरत होती है। इसके बिना वह सांसारिक कार्य नहीं कर सकता। मरने पर आत्मा सूक्ष्म शरीर के साथ निकल जाती है किंतु यह सूक्ष्म शरीर भी सांसारिक कार्य नहीं कर सकता। सुषुप्ति की अवस्था रूप इस सूक्ष्म शरीर को यम ले जाता है। यह यम कुछ और नहीं बल्कि वायु है इसी में यह आत्मा सूक्ष्म शरीर के साथ रहती है और परमात्मा उसके कर्मो के अनुसार उस जीवात्मा को नया शरीर देता है। यही यम का सच्चा अर्थ है। जीवात्मा स्वयं अपने कर्म के अनुसार शरीर पाती है। परमात्मा अपनी इच्छा से उस जीवात्मा को कोई शरीर नहीं देता अतः परमात्मा पर कोई पक्षपात का दोष नहीं। आत्मा की स्वतंत्रता की सिद्धि भी इस बात से होती है।
भूत प्रेत चुड़ैल
कभी सोचे हैं कि क्यों भूत प्रेत अँधेरे में ही दिखाई देते हैं, दिन में नहीं। आँखों को धोखा अंधेरे में होता है। अंधेरे में तो रस्सी भी साँप प्रतीत होती है। अंधेरे में मनोरचना वश मनुष्य कई बार कुसंस्कारों के कारण भूत की कल्पना कर लेता है। मनोरचना अर्थात मन की कल्पना से बनी दुनिया। मन का स्वभाव ही है कल्पना करना और यह कल्पना पुराने संस्कार की खुराक पर निर्भर करती है।
जो भी हम सोचते विचारते हैं उसका प्रभाव हमारे मन पर अवश्य पड़ता है। भूत प्रेत की काल्पनिक कथाओं को पढ़ सुन कर संस्कार ऐसा बन जायेगा कि कभी न कभी डर भी लगेगा जिसका कुसंस्कार जितना अधिक प्रबल होता है उसके द्वारा किसी हिलते कपड़े या पेड़ो की शाखाओं को भूत प्रेत समझने का भरम ज्यादा होता है।
कई बार तो सदमे की वजह से बेचारे की जान तक चली जाती है और लोग कहते हैं कि बेचारे को भूत पकड़ लिया और भूत मार दिया इत्यादि।
भूत प्रेत के चक्कर मे कितने परिवार धन संपत्ति इज्जत और प्राण भी गंवा चुके हैं। अतः दुष्ट तांत्रिकों के चक्कर में नहीं पड़ना ही उचित है। वहम का इलाज सत्यज्ञान ही है। यह कहना भी मूर्खता है कि भूत पिशाच के भरम का इलाज नहीं। जीवात्मा के सत्य स्वरूप को जानना, जीवन मृत्यु व सृष्टि रचना के उद्देश्यों को समझने में सहायक सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए।
लाल किताब, तन्त्रमार्ग आदि वामपंथी पुस्तकें जालग्रन्थ हैं जिनको पढ़कर भूत प्रेत का भरम बढ़ना स्वाभाविक है। इसी तरह मनोरंजन के नाम पर बनी भुतहा फिल्में भी कुसंस्कारों को बढ़ाती हैं।
अब कुछ तार्किक तथ्यों पर विचार करना चाहिए—
जब हम अपनी आत्मा को नहीं देख सकते, फिर भूतात्मा को कैसे देख सकते हैं।
जो भूत प्रेत देखने का दावा करते हैं या कथाएँ सुनाते हैं, वे सच्ची हैं या झूठी यह कैसे प्रमाणित कर सकते हैं।
भूत प्रेत को वश में करने वाले भूतों की फौज पाकिस्तान बॉर्डर पर क्यों नहीं खड़ा करतें। इत्यादि।
अब यह समझे कि भूत क्या है।
भूत और प्रेत संस्कृत भाषा के शब्द हैं। अतः इन दोनों शब्दों के अर्थ को समझने की आवश्यकता है।
मनुस्मृति के इस श्लोक को देखें —
गुरोः प्रेतस्य शिष्यस्तु पितृमेधं समाचरन् ।
प्रेतहारैः समं तत्र दशरात्रेण शुद्ध्यति॥[1]
प्रेत अर्थात मृत शरीरअर्थ—
जब गुरु अर्थात बड़ा या वृद्ध का प्राणान्त हो तब मृतक शरीर जिसको प्रेत कहते हैं, उस का दाह करने वाला शिष्य प्रेतहार (अर्थात् मृतक को उठाने वाला) दशवें दिन शुद्ध होता है और जब उस शरीर का दाह हो चुका तब उस देह का नाम भूत होता है क्योंकि अब वह शरीर नहीं रहा।[2]
मृत पड़े शरीर को प्रेत कहते हैं और जब उस शरीर का दाह संस्कार कर देते हैं तब उसको भूत कहते हैं।
मृत पड़े शरीर को श्मशान ले जाने वाले को प्रेतहार कहते हैं।
जितने उत्पन्न हों, वर्त्तमान में आ के न रहें वे भूतस्थ होने से उन का नाम भूत है। ऐसा ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त के विद्वानों का सिद्धान्त है परन्तु जिस को शङ्का, कुसंग, कुसंस्कार होता है उस को भय और शंकारूप भूत, प्रेत, शाकिनी, डाकिनी आदि अनेक भ्रमजाल दुःखदायक होते हैं।भूत अर्थात शरीर जो अब वर्तमान नहीं रहा।[3]
अब एक और श्लोक को देखते हैं—
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति॥—यह मनुस्मृति का श्लोक है।
जल से शरीर के बाहर के अवयव, सत्याचरण से मन, विद्या और तप अर्थात् सब प्रकार के कष्ट भी सह के धर्म ही के अनुष्ठान करने से जीवात्मा, ज्ञान अर्थात् पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों के विवेक से बुद्धि दृढ़ निश्चय पवित्र होता है।
भूतात्मा जीवात्मा को कहते हैं क्योंकि चेतन आत्मा के भौतिक प्रकृति के साथ संयोग को दर्शाता है।
ध्यातव्य है कि भूत प्रेत पिशाच आदि के बारे में जिन्न फ़रिश्ते जैसे कपोल कल्पित विचार बौद्ध जैन इस्लाम आदि के प्रचार प्रसार से निरंतर बढता गया। फ़िल्म और दूरदर्शन भी इस तरह के अवैज्ञानिक विचारों को बढाने में सहयोग देता है। फलस्वरूप मनोवैज्ञानिक रूप से व्यक्ति भूत प्रेतों के अस्तित्व को मानने के लिए तैयार हो जाता है। इसे ही कुसंस्कार कहते हैं।
आमतौर पर जो भूत पिशाच बाधा से ग्रस्त होता है वह वस्तुतः किसी मनोव्याधि से पीड़ित होता है। मनोविज्ञान की पुस्तकों में फोबिया, विभर्म हेलुकिनेशन, साइकोसिस आदि मनोव्याधि का वर्णन है। ऐसे लोग इसी तरह की किसी मनोरोग से ग्रसित होते हैं।
भय एक मानसिक रोग है—
जन्म लेने मात्र से कोई मनुष्य नहीं होता इसलिए हमारे शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि जन्मना सभी शुद्र अर्थात मूर्ख होते हैं। भारतीय संस्कृति में सोलह संस्कारों का महत्त्व है। संस्कारों का मुख्य उद्देश्य तन और मन की शुद्धि/सुधार से है। मन की मलिनता, कुबुद्धि से भूत प्रेत के भय के संस्कार जन्म लेते हैं और यह जीवन में अपार क्षति पहुंचा सकता है। अतः शुरू से ही इस सम्बंध में सत्यबोध होना चाहिए अन्यथा इसका निराकरण सम्भव नहीं। भूत प्रेत और तांत्रिकों के चक्कर मे दिल्ली में ग्यारह लोगों की जान चली गयी। अंधविश्वास में आत्महत्या जैसा पाप कर बैठें और टीवी चैनलों पर भी इस तरह के अंधविश्वास को बढ़ावा दिया जाता रहा है।
मनुष्य ने छोटी छोटी वस्तुओं से लेकर बडी बडी चीजें बनायी है और भूत भी उसमें से एक है। अब यह नुकसान पहुंचाये तो दोष भी हमारा है।
मनुष्य के एकादश इंद्रियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और शक्तिशाली इन्द्रिय मन है। मन की कल्पनाशीलता की सीमा नहीं है। जीवन की समस्त ऊर्जा को मन से निसृत और मन में समाहित मानना चाहिए। इसलिए मन की सूक्ष्म से सूक्ष्म गति का जीवन पर प्रभाव पड़ता है। गीता में योगीश्वर श्रीकृष्ण ने मन को ही मुक्ति का साधन बताया है।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥
मन ही मानव के बंध और मोक्ष का कारण है, जो वह विषयासक्त हो तो बंधन कराता है और निर्विषय हो तो मुक्ति दिलाता है ।[4]
भूत प्रेत को वश में करना है तो इस मन में बसे डर के कारण और निराकरण का उपाय समझना चाहिए। जैसा संस्कार वैसा विचार।
सभी चित्र गूगल से।
फुटनोट
[1] द्वितीय समुल्लास - Satyarth Prakash (Hindi)
[2] द्वितीय समुल्लास - Satyarth Prakash (Hindi)
[3] द्वितीय समुल्लास - Satyarth Prakash (Hindi)
[4] मन एव मनुष्याणां
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