परकाया प्रवेश योग की विद्या मानी जाती है जिसका अर्थ है योगी द्वारा स्वेच्छा से अपनी आत्मा को किसी दूसरे शरीर में प्रवेश कराना। इसको योग विद्या द्वारा सम्भव बताया जाता है।
यह किवदंती प्रचलित है कि आदि शङ्कर ने परकाया प्रवेश किया था। प्रश्न यह है कि क्या परकाया प्रवेश शास्त्रसम्मत है अथवा नहीं? अगर शास्त्र सम्मत है तो यह विद्या कैसे सिद्ध होगी।
आदि शङ्कर के परकाया प्रवेश के बारे में एक किवदंती प्रचलित है। संक्षेप में कथा कुछ इस प्रकार की है।
आदि शंकराचार्य का मैथिल ब्राह्मण मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ हुआ था। मण्डन मिश्र की शास्त्रार्थ में पराजय हुई। माना जाता है कि पति के पराजय से क्षुब्ध हो कर उनकी पत्नी ने आदि शंकराचार्य को शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित किया। शास्त्रार्थ में उसने कामशास्त्र से जुड़े कुछ गुप्त प्रश्न पूछे जिसका उत्तर देने में आदि शंकराचार्य ने असमर्थता जतायी। उन्होंने ब्रह्मचारी संन्यासी होने के कारण काम विषय पर अपनी अज्ञानता प्रकट की। अपनी पराजय के बाद काम ज्ञान अनुभव हेतु उन्होंने परकाया प्रवेश किया। अपने शिष्यों को कहा कि मेरे शरीर की रक्षा करो मैं दूसरे राजा के शरीर मे प्रवेश करने जा रहा हूँ। जब तक वापस नहीं आता, शरीर की रक्षा करना।
इस संदर्भ में यह उल्लेख करना उचित होगा कि आदि शङ्कर दर्शन के क्षेत्र में तर्क को सर्वोपरि मानते थे। यह उसी प्रकार की बात है जिस प्रकार पाश्चात्य दार्शनिक इमेंन्युल कांट ने माना है। ध्यातव्य है कि तर्क के आधार पर ही शङ्कर ने नास्तिक जैन बौद्ध मत को धराशायी किया था न कि तथाकथित अंधविश्वास से।
श्रद्धा का शाब्दिक अर्थ ही है तर्क में स्थित होना, धारण करना, श्रद् + धा। अतः तर्क के आलोक में उपर्युक्त कथा के प्रति विश्वास की समीक्षा करते हैं—
प्रश्न है कि क्या बिना विवाह या मैथुन के काम विषय पर कोई विद्वान या ज्ञानी नहीं हो सकता? क्या धरती से सूर्य की दूरी जानने के लिए सूर्य पर जाना जरूरी है? बिना आग में अंगुली जलाये, क्या अग्नि के गुण धर्म का ज्ञान विद्वान नहीं कर लेते? क्या लाखों प्रकाश वर्ष दूर तारों की गति और अवस्था का ज्ञान खगोलशास्त्री तर्क और अनुसंधान से नहीं करतें। क्या इसके लिए प्रत्यक्ष प्रमाण का अवलंबन करते हैं अथवा तर्क के अप्रत्यक्ष प्रमाणों का?
क्या शङ्कर के पहले कामशास्त्र अप्रचलित थे? क्या काम वासना के स्वरूप को समझे बिना कोई आदि शंकराचार्य जैसा बाल ब्रह्मचारी संन्यासी मन को वश में कर सकता है?
मन के संकल्प शक्ति को नहीं समझने के कारण ही पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ़्रायड ने मन की सबसे बड़ी शक्ति को काम वासना या लिबिडो मान लिया। भारतीय ऋषि मुनियों ने संकल्प को काम शक्ति से बड़ा माना है और मन को वश में करने के लिए संकल्प शक्ति को ही सर्वोपरि माना है। गीता में संकल्प शक्ति की महिमा को पढ़ कर ही पाश्चात्य जर्मन दार्शनिक शोपेनहोवर ने "वर्ल्ड एज विल" की संकल्पना विकसित की।
क्या आदि शंकर इन तथ्यों से अनभिज्ञ थे? कदापि नहीं। भारतीय दर्शन की यह मूल भित्ति है। कपिल मुनि के मनोविज्ञान से आदि शंकराचार्य जैसे महान संन्यासी अनभिज्ञ नहीं हो सकते। फिर सत्य क्या है? मैथिल ब्राह्मणों का मिथ्याभिमानी होना तो जगप्रसिद्ध है। सच तो यह प्रतीत होता है कि मैथिल ब्राह्मणों ने अपनी पराजय को छिपाने के लिए यह कहानी गढ़ कर प्रचलित कर दी होगी। यह दयानन्द काशी शास्त्रार्थ के तुल्य है। शास्त्रार्थ में पराजित काशी के पंडितों ने छल कपट का सहारा ले कर जो दुष्प्रचार किया, छिपा नहीं रहा।
ध्यातव्य है कि विकिपीडिया पर मंडन मिश्र सपत्नीक पराजय की बात लिखित है न कि शंकराचार्य के पराजय की।
द्वितीय, एक शरीर से दूसरा शरीर/ योनि प्राप्त करना जीवात्मा के वश नहीं। यह परमात्मा के वश है। अतः कोई भी जीव स्वेच्छा से परकाया प्रवेश नहीं कर सकता। यह विषय भी पुनर्जन्म के सिद्धांत का अंग है। पुनर्जन्म में मनुष्य क्या बनेगा, ईश्वर अधीन है।
तृतीय, अगर परकाया प्रवेश को सत्य मान ले फिर भी निम्न ऐतिहासिक घटना विचारणीय है। शंकराचार्य के जीवन और देहांत की ऐतिहासिक घटना को जानना समझना जरूरी है। अब आदि शंकराचार्य के जीवन-मृत्यु के बारे में जो लिखा गया है वह इस प्रकार हैं—
भारत में जैन मत के प्रचार प्रसार से वैदिक मत की अपार हानि हुई। जैनी वेद का अर्थ न जानकर बाहर की पोपलीला को भ्रान्ति से वेद पर मानकर वेदों की भी निन्दा करने लगे। उस के पठनपाठन यज्ञोपवीतादि और ब्रह्मचर्यादि नियमों को भी नाश किया। जहां जितने पुस्तक वेदादि के पाये नष्ट किये। आर्य्यों पर बहुत सी राजसत्ता भी चलाई। दुःख दिया। जब उन को भय शङ्का न रही तब अपने मत वाले गृहस्थ और साधुओं की प्रतिष्ठा और वेदमार्गियों का अपमान और पक्षपात से दण्ड भी देने लगे। और आप सुख आराम और घमण्ड में आ फूलकर फिरने लगे। ऋषभदेव से लेके महावीर पर्यन्त अपने तीर्थंकरों की बड़ी-बड़ी मूर्त्तियाँ बना कर पूजा करने लगे अर्थात् पाषाणादि मूर्त्तिपूजा की जड़ जैनियों से प्रचलित हुई। परमेश्वर का मानना न्यून हुआ, पाषाणादि मूर्त्तिपूजा में लगे। ऐसा तीन सौ वर्ष पर्यन्त आर्यावर्त्त में जैनों का राज रहा। प्रायः वेदार्थज्ञान से शून्य हो गये थे। इस बात को अनुमान से अढ़ाई सहस्र वर्ष व्यतीत हुए होंगे।
बाईस सौ वर्ष हुए कि एक शङ्कराचार्य द्रविड़देशोत्पन्न ब्राह्मण ब्रह्मचर्य से व्याकरणादि सब शास्त्रों को पढ़कर सोचने लगे कि अहह! सत्य आस्तिक वेद मत का छूटना और जैन नास्तिक मत का चलना बड़ी हानि की बात हुई है। इन को किसी प्रकार हटाना चाहिये। शङ्कराचार्य शास्त्र तो पढ़े ही थे परन्तु जैन मत के भी पुस्तक पढ़े थे और उन की युक्ति भी बहुत प्रबल थी। उन्होंने विचारा कि इन को किस प्रकार हटावें? निश्चय हुआ कि उपदेश और शास्त्रार्थ करने से ये लोग हटेंगे। ऐसा विचार कर उज्जैन नगरी में आये। वहां उस समय सुधन्वा राजा था, जो जैनियों के ग्रन्थ और कुछ संस्कृत भी पढ़ा था। वहाँ जाकर वेद का उपदेश करने लगे और राजा से मिल कर कहा कि आप संस्कृत और जैनियों के भी ग्रन्थों को पढ़े हो और जैन मत को मानते हो। इसलिये आपको मैं कहता हूं कि जैनियों के पण्डितों के साथ मेरा शास्त्रार्थ कराइये। इस प्रतिज्ञा पर, जो हारे सो जीतने वाले का मत स्वीकार कर ले। और आप भी जीतने वाले का मत स्वीकार कीजियेगा।
यद्यपि सुधन्वा जैन मत में थे तथापि संस्कृत ग्रन्थ पढ़ने से उन की बुद्धि में कुछ विद्या का प्रकाश था। इस से उन के मन में अत्यन्त पशुता नहीं छाई थी। क्योंकि जो विद्वान् होता है वह सत्याऽसत्य की परीक्षा करके सत्य का ग्रहण और असत्य को छोड़ देता है। जब तक सुधन्वा राजा को बड़ा विद्वान् उपदेशक नहीं मिला था तब तक सन्देह में थे कि इन में कौन सा सत्य और कौन सा असत्य है। जब शङ्कराचार्य की यह बात सुनी और बड़ी प्रसन्नता के साथ बोले कि हम शास्त्रार्थ कराके सत्याऽसत्य का निर्णय अवश्य करावेंगे। जैनियों के पण्डितों को दूर-दूर से बुलाकर सभा कराई।
उसमें शङ्कराचार्य का वेदमत और जैनियों का वेदविरुद्ध मत था अर्थात् शङ्कराचार्य का पक्ष वेदमत का स्थापन और जैनियों का खण्डन और जैनियों का पक्ष अपने मत का स्थापन और वेद का खण्डन था। शास्त्रार्थ कई दिनों तक हुआ। जैनियों का मत यह था कि सृष्टि का कर्त्ता अनादि ईश्वर कोई नहीं। यह जगत् और जीव अनादि हैं। इन दोनों की उत्पत्ति और नाश कभी नहीं होता। इस से विरुद्ध शङ्कराचार्य का मत था कि अनादि सिद्ध परमात्मा ही जगत् का कर्त्ता है। यह जगत् और जीव झूठा है क्योंकि उस परमेश्वर ने अपनी माया से जगत् बनाया। वही धारण और प्रलय कर्त्ता है। और यह जीव और प्रपञ्च स्वप्नवत् है। परमेश्वर आप ही सब रूप होकर लीला कर रहा है।
बहुत दिन तक शास्त्रार्थ होता रहा। परन्तु अन्त में युक्ति और प्रमाण से जैनियों का मत खण्डित और शङ्कराचार्य का मत अखण्डित रहा। तब उन जैनियों के पण्डित और सुधन्वा राजा ने वेद मत को स्वीकार कर लिया। जैनमत को छोड़ दिया। पुनः बड़ा हल्ला गुल्ला हुआ और सुधन्वा राजा ने अन्य अपने इष्ट मित्र राजाओं को लिखकर शङ्कराचार्य से शास्त्रार्थ कराया। परन्तु जैन का पराजय समय होने से पराजित होते गये।
पश्चात् शङ्कराचार्य के सर्वत्र आर्यावर्त्त देश में घूमने का प्रबन्ध सुधन्वादि राजाओं ने कर दिया और उन की रक्षा के लिये साथ में नौकर चाकर भी रख दिये। उसी समय से सब के यज्ञोपवीत होने लगे और वेदों का पठन-पाठन भी चला। दस वर्ष के भीतर सर्वत्र आर्यावर्त्त देश में घूम कर जैनियों का खण्डन और वेदों का मण्डन किया। परन्तु शङ्कराचार्य के समय में जैन विध्वंस अर्थात् जितनी मूर्त्तियां जैनियों की निकलती हैं। वे शङ्कराचार्य के समय में टूटी थीं और जो विना टूटी निकलती हैं वे जैनियों ने भूमि में गाड़ दी थीं कि तोड़ी न जायें। वे अब तक कहीं भूमि में से निकलती हैं।
शंकराचार्य के पूर्व शैवमत भी थोड़ा सा प्रचरित था। उस का भी खण्डन किया। वाममार्ग का खण्डन किया। उस समय इस देश में धन बहुत था और स्वदेशभक्ति भी थी। जैनियों के मन्दिर शङ्कराचार्य और सुधन्वा राजा ने नहीं तुड़वाये थे क्योंकि उन में वेदादि की पाठशाला करने की इच्छा थी। जब वेदमत का स्थापन हो चुका औेर विद्या प्रचार करने का विचार करते ही थे। उतने में दो जैन ऊपर से कथनमात्र वेदमत और भीतर से कट्टर जैन अर्थात् कपटमुनि थे। शङ्कराचार्य उन पर अति प्रसन्न थे। उन दोनों ने अवसर पाकर शङ्कराचार्य को ऐसी विषयुक्त वस्तु खिलाई कि उन की क्षुधा मन्द हो गई। पश्चात् शरीर में फोड़े फुन्सी होकर छः महीने के भीतर शरीर छूट गया। तब सब निरुत्साही हो गये और जो विद्या का प्रचार होने वाला था वह भी न होने पाया। जो-जो उन्होंने शारीरक भाष्यादि बनाये थे उन का प्रचार शङ्कराचार्य के शिष्य करने लगे। अर्थात् जो जैनियों के खण्डन के लिये ब्रह्म सत्य जगत् मिथ्या और जीव ब्रह्म की एकता कथन की थी उस का उपदेश करने लगे। दक्षिण में शृंगेरी, पूर्व में भूगोवर्धन, उत्तर में जोशी और द्वारिका में शारदामठ बांध कर शङ्कराचार्य के शिष्य महन्त बन और श्रीमान् होकर आनन्द करने लगे क्योंकि शङ्कराचार्य के पश्चात् उन के शिष्यों की बड़ी प्रतिष्ठा होने लगी
उपर्युक्त बातें महर्षि दयानंद सरस्वती के सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ से उद्धरित है। इसमें भी शंकराचार्य के परकाया प्रवेश की बात नहीं मानी गयी है।
आधुनिक युग में एक बार किसी ने महर्षि दयानंद सरस्वती से शंकर के परकाया प्रवेश पर उनका विचार पूछा। उन्होंने कहा कि मैं योगबल से अपनी सारी शक्तियों को अपने शरीर में किसी जगह भी स्थित कर सकता हूँ। परकाया प्रवेश बस इससे एक चरण आगे की स्थिति है। उन्होंने इस विद्या को स्वीकार किया या अस्वीकार, स्पष्ट नहीं।
एक और प्रकरण दृष्टांत हेतु लेते हैं। हलाहल विष दिए जाने पर महर्षि दयानंद सरस्वती ने स्वेच्छा से एक निश्चित दिन अपने शरीर का परित्याग कर दिया था। नास्तिक गुरुदत्त विद्यार्थी इस स्वेच्छा से प्राणत्याग की घटना देख कर आस्तीक बन गये। ध्यातव्य है कि आत्महत्या और स्वेच्छा मृत्यु में भेद है। कोई तर्क कर सकता है कि यदि स्वेच्छा मृत्यु सम्भव है तो स्वेच्छा से परकाया प्रवेश क्यों नहीं? अतः यदि परकाया प्रवेश को सच भी मान लिया जाये, तथापि यह विद्या कैसे सिद्ध होती है। क्वेरा पर तो कोई बताने से रहा। योग की इस विद्या के बारे में तो कोई परम् योगी ही बता सकता है। और योग विद्या का सम्बंध तर्कातीत अभ्यास अर्थात परमात्मा की कृपा, गुरू सानिध्य और योगाभ्यास से ही हो सकता है न कि अन्यथा।
ओ3म शुभसंकल्पस्तु।।।
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