यह आलेख तीन खंडों में विभाजित है। प्रथम खंड में धिम्मी के अर्थ और उनके साथ किए जाने वाले मुस्लिम पक्ष के व्यवहार का संक्षिप्त विवरण है। द्वितीय खंड में गैरधिम्मी के अर्थ और उनके साथ किए जाने वाले सलूक का संक्षिप्त विवरण है। तीसरा अंतिम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जिसमें उमर की संधि का वर्णन है। उमर की इस संधि को मुगलों ने मूर्तिपूजक हिंदुओं पर परिवर्तित ढंग से लागू किया, उसका प्रभाव क्या पड़ा है उस पर भी संक्षेप में चर्चा है।
धीम्मि (धिम्मी / Dhimmi) एक इस्लामी कानूनी और राजनीतिक शब्द है जो इस्लामी राज्य के ग़ैर-मुस्लिम नागरिकों के लिए प्रयोग होता है, विशेष रूप से "अहल-अल-किताब" यानी "किताब वाले" — यहूदी, ईसाई, और कुछ मामलों में पारसी जैसे समुदाय।
'धिम्मी' शब्द की उत्पत्ति:
- अरबी मूल: "धिम्मी" शब्द अरबी के "धिम्मा" (ذمة) से आया है, जिसका अर्थ होता है संरक्षण, संपत्ति की गारंटी, या अनुबंध।
- इसका आशय है कि ये लोग इस्लामी शासन के अधीन संरक्षित प्रजा हैं, जिन्हें एक अनुबंध (संधि) के अंतर्गत कुछ अधिकार और स्वतंत्रताएँ मिलती हैं। सरल शब्दों में कॉन्ट्रैक्ट से बंधे लोग। ये कॉन्ट्रैक वस्तुतः उनकी दशा को शोचनीय बनाने के लिए था जैसे युद्ध बंदियों के साथ कॉन्ट्रैक्ट।
धिम्मियों की स्थिति और विशेषताएँ:
- धार्मिक स्वतंत्रता: उन्हें अपनी धार्मिक मान्यताओं और पूजा-पद्धतियों का पालन करने की सशर्त अनुमति थी।
- सुरक्षा की गारंटी: इस्लामी राज्य उनकी जान-माल और स्त्री के शील की सशर्त रक्षा करता था।
- राजनीतिक सीमाएँ: धिम्मियों को सामान्यतः शासन, सैन्य, या न्यायपालिका के उच्च पदों से वंचित रखा जाता था।
- विशेष कर – जज़िया: उन्हें एक विशेष कर देना होता था जिसे जज़िया (Jizya) कहते हैं। यह कर इस बात का मूल्य था कि वे इस्लामी राज्य में रह सकते हैं और सेना में सेवा नहीं करेंगे।
- कुछ सामाजिक प्रतिबंध: विशिष्ट वस्त्र पहनना ताकि उनको मुसलमानों से अलग पहचाना जा सके, नए पूजा-स्थल न बनाना, और कुछ सामाजिक आचरण पर सीमाएँ होती थीं।
धिम्मी की तुलना में मुसलमानों की स्थिति:
- मुसलमानों को ज़कात देना होता था, जो धार्मिक दायित्व था।
- लेकिन धिम्मियों पर जज़िया अनिवार्य था और उनकी स्थिति राज्य में द्वितीय स्तर की मानी जाती थी। जजिया की शर्ते अत्यधिक कठोर थी।
गैर धिम्मी की स्थिति:
"धिम्मी" का दर्जा मुख्यतः "अहल-अल-किताब" (अर्थात् 'किताब वाले') को ही दिया जाता था—जैसे यहूदी, ईसाई, और कुछ क्षेत्रों में पारसी। अब प्रश्न आता है:
जो "किताबी नहीं" हैं — जैसे हिंदू, बौद्ध, जैन, या आदिवासी परंपराओं के अनुयायी — उनके लिए इस्लामी शासन में क्या नियम थे?
1. सिद्धांत के स्तर पर (शुरुआती इस्लामी कानून):
इस्लाम के प्रारंभिक शरीअत ग्रंथों (जैसे क़ुरआन, हदीस और फिक़्ह) के अनुसार:
- धिम्मी का दर्जा केवल अहल-अल-किताब को मिलता था यानी जिन पर ईश्वर की किताब (जैसे तौरात, इंजील) उतरी हो।
- गैर-किताबी माने जाने वाले समुदायों को या तो इस्लाम स्वीकार करना होता था या फिर उन्हें धिम्मी दर्जा नहीं मिलता, जिससे उनकी रक्षा की गारंटी नहीं रहती थी।
2. व्यवहारिक राजनीति और लचीलापन:
लेकिन वास्तविक शासन में, जैसे-जैसे इस्लामी साम्राज्य भारत, मंगोल, चीन, या दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैला, वहाँ अनेक ऐसे समुदाय मिले जो "किताबी" नहीं थे।
उस स्थिति में हुआ क्या?
इस्लामी शासकों ने प्रायोगिक लचीलापन अपनाया, विशेषकर:
(i) भारत में — हिंदू, बौद्ध, जैन:
- मुग़ल शासन (खासकर अकबर के समय) में हिंदुओं को धिम्मी-सदृश दर्जा मिला। सबको मार देते तो मिलता क्या? इसलिए भारत में अपार मूर्तिपूजको को मारने की जगह जजिया अधिक उपयुक्त उपाय था।
- उनसे जज़िया लिया गया, मगर उन्हें पूजा, मंदिर, त्यौहार आदि की स्वतंत्रता भी दी गई। जजिया कठोर था जो नहीं दे सकता था इस्लाम कबूल कर लेता था।
- औरंगज़ेब के समय जज़िया फिर से लगाया गया था।
(ii) पारसी और अग्निपूजक:
- पारसियों को कुछ क्षेत्रों में "अहल-उल-किताब की तरह" व्यवहार किया गया, भले उनके धर्म में किताब न हो।
- यह न्यायसंगत शासन के व्यावहारिक रूप के तहत किया गया।
3. फिक़्ह (इस्लामी विधिशास्त्र) में लचीली व्याख्या:
कुछ इस्लामी फुक़हा (कानूनविदों) ने कहा:
"यदि किसी समुदाय की धार्मिक परंपरा में आचार-संहिता, ईश्वर का विश्वास, और कुछ धार्मिक अनुशासन हैं, तो उन्हें भी धिम्मी जैसा संरक्षण दिया जा सकता है।"
सबसे महत्वपूर्ण भाग राशिदून खलीफा उमर इब्न अल खत्ताब के द्वारा ६३७ ईसवी में अधीन बनाए गए ईसाईयों के ऊपर लागू शर्तों से है जिसे उमर की संधि कहते हैं।
"उमर की संधि" (Pact of Umar) एक ऐतिहासिक दस्तावेज या नीति है जिसे खलीफा उमर इब्न अल-खत्ताब (दूसरे राशिदून खलीफा, शासनकाल: 634–644 ई.) से जोड़ा जाता है। यह संधि मुख्य रूप से ग़ैर-मुस्लिम प्रजा—विशेषकर ईसाइयों और यहूदियों—के लिए थी, जो इस्लामी राज्य के अधीन रह रहे थे। उन्हें धिम्मी (Dhimmi) कहा जाता था, यानी "संरक्षित लोग", जिन्हें अपनी आस्था पर कायम रहने की अनुमति थी, बशर्ते वे इस्लामी शासन की कुछ विशेष शर्तों का पालन करें।
संधि की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
637 ईसवी में जब मुसलमानों ने यरूशलेम और सीरिया के विभिन्न भागों को विजित किया, तो वहाँ के ईसाई समुदाय के साथ एक समझौता किया गया, जिसे "उमर की संधि" कहा जाता है। हालाँकि कुछ इतिहासकार इस संधि को बाद के काल (उमय्यद खलीफा अब्द अल-मलिक या अल-वलिद के समय) की उपज मानते हैं, लेकिन इसका श्रेय पारंपरिक रूप से उमर इब्न अल-खत्ताब को दिया जाता है।
उमर की संधि की प्रमुख शर्तें:
यह संधि एक तरह का धिम्मी कॉन्ट्रैक्ट थी, जिसके अंतर्गत ईसाई समुदाय को धार्मिक स्वतंत्रता तो दी गई, पर कुछ सामाजिक, सांस्कृतिक, और नागरिक प्रतिबंधों के साथ। कुछ प्रमुख शर्तें इस प्रकार थीं:
- धार्मिक भवनों का निर्माण/पुनर्निर्माण प्रतिबंधित: कोई नया गिरजाघर नहीं बनाया जाएगा। पुराने गिरजाघरों की मरम्मत चुपचाप और बिना दिखावे के की जाएगी।
- धार्मिक प्रतीकों की सार्वजनिकता नहीं: क्रॉस, घंटियाँ, या धार्मिक जुलूस सार्वजनिक स्थानों पर नहीं निकाले जाएँगे।
- धार्मिक प्रचार निषिद्ध: मुस्लिमों को ईसाई धर्म में आकर्षित करने का प्रयास नहीं किया जाएगा। इसके विपरीत मुस्लिम मत की ओर कोई ईसाई आकर्षित हो तो उसको मुसलमान बनने से नहीं रोकेंगे।
- धिम्मी की सामाजिक स्थिति: विशिष्ट वस्त्र पहनने होंगे जो उन्हें मुस्लिमों से अलग दर्शाएँ। घोड़े की सवारी जैसे सम्मानजनक कार्यों की मनाही थी; गधे पर सवारी की अनुमति थी। मुस्लिमों के लिए रास्ता छोड़ा जाएगा। कोई भी ईसाई कोई उच्च पद नहीं ले सकता जिसमें मुसलमानों पर अधिकार हो।
- जज़िया कर देना अनिवार्य: हर व्यस्क धिम्मी को एक विशेष कर (जज़िया) देना होता था, जो उनकी धार्मिक स्वतंत्रता और जान-माल की रक्षा के बदले लिया जाता था।
- कुरान पढ़ने पर पाबंदी: ईसाई कुरान नहीं पढ़ सकते न उसकी चर्चा या बुराई किसी को बता सकते हैं। ऐसा करने पर वे दंड के पात्र होंगे।
- सामने के बाल कटे होना: ईसाइयों को अपनी पहचान सुनिश्चित करने के लिए अपने सामने के बाल काटने होंगे।
- मुसलमानों की आवभगत: यदि कोई मुसलमान चाहे तो इसाई के घर मेहमान की तरह रह सकता है। मुसलमानों के सामने वे बैठ नहीं सकते। यदि कोई मुसलमान सामने पड़े तो उसकी आवभगत करनी होगी।
- अन्य: इस तरह के अन्य अमानवीय नियमों को पूरी तरह जानने के लिए गूगल करें।
संधि का उद्देश्य और प्रभाव:
- यह एक राजनीतिक और सामाजिक अनुबंध था जो इस्लामी शासन को स्थिरता देता था और अल्पसंख्यकों को संरक्षित स्थिति में रखता था। संरक्षित से आशय जानमाल और स्त्री की लज्जा मर्यादा के बचाव से है लेकिन यह कोई गारंटी नहीं था।
- इससे गैर-मुस्लिमों को धार्मिक स्वतंत्रता तो मिली, लेकिन उनकी सामाजिक स्थिति द्वितीय श्रेणी की थी।
- लंबे समय तक इस्लामी साम्राज्यों में यह संधि धिम्मी नीति का आधार बनी रही।
- इसी जिम्मिवाद से ग्रस्त होने के बाद भारत की मूल सभ्यता संस्कृति पूरी तरह नष्टभ्रष्ट कर दिया है।
जब कोई भी इस्लामी 'संस्कृति' से जुड़ता है, वह वास्तव में कलंकित और बर्बर हो जाता है। यही कारण है कि यह इतना हानिकारक और खतरनाक है।
आज, इस्लाम द्वारा आत्मा को नष्ट करने वाली अन्य संस्कृतियों की तरह, भारत वास्तव में एक हिंदू राष्ट्र नहीं है। भारत इस्लाम की छाया है, इस्लाम का एक हिंदूकृत संस्करण है, जहां हर मानवीय अत्याचार का अनुकरण किया गया है और ऐसी संस्कृति में अपनाया गया है जो पहले ऐसी क्रूरता के लिए विदेशी थी। और इसके विदेशी मोहम्मडन कल्ट के साथ, ये इस्लामी आदतें भारतीय संस्कृति के एक "सामान्य" हिस्से के रूप में अपनाई और स्वीकार की गई हैं।
लेकिन अगर हम इस्लाम से पहले की भारतीय संस्कृति को देखें तो यह आम तौर पर ज्ञान और सीखने की एक परोपकारी संस्कृति थी, जो आज की तुलना में कहीं अधिक है। उमय्यद राजवंश (711 ई.) से लेकर अंतिम मुगल, बहादुर शाह जफर (1858) तक, जिन्हें भारतीय इतिहासकारों ने महान नेता के रूप में बहुत सराहा है, पूरे शहर जला दिए गए और आबादी का नरसंहार किया गया, हर अभियान में सैकड़ों हज़ार लोग मारे गए और इतनी ही संख्या में लोगों को गुलाम बनाकर निर्वासित किया गया। हर नए आक्रमणकारी ने हिंदुओं की खोपड़ियों से अपनी पहाड़ियाँ बनाईं। इस प्रकार, वर्ष 1000 में अफ़गानिस्तान पर विजय के बाद हिंदू आबादी का विनाश हुआ; इस क्षेत्र को अभी भी हिंदू कुश, यानी "हिंदू वध" कहा जाता है।
इस आलेख को भविष्य में और अधिक परिवर्द्धित किया जाएगा। शेष, लिंक भी सम्बन्धित तथ्यों से भरपूर है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें