इस प्रश्न का उत्तर हमारी कल्पनाशीलता पर निर्भर है।
आइए, इस सवाल को सरल तुलनात्मक उदाहरणों के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं। ये उदाहरण कल्पना की उड़ान पर आश्रित हैं—
कल्पना कीजिए कि आप एक बहुत ही तेज़ नाव में बैठे हैं और नदी में आगे बढ़ रहे हैं। जैसे-जैसे आप स्पीड बढ़ाते जाते हैं, आपको लगता है कि पानी नाव को ज़्यादा ज़ोर से पीछे खींच रहा है — यानी जितनी तेज़ नाव चलती है, उतना ही ज़्यादा प्रतिरोध मिलता है।
अब सोचिए कि अगर आप कोशिश करें कि उस नाव को पानी की गति से भी तेज़ चलाएं, तो क्या होगा?
- नाव को आगे बढ़ाने के लिए आपको अनंत ताकत लगानी पड़ेगी, लेकिन कोई भी इंसान या इंजन उतनी अनंत ऊर्जा नहीं दे सकता।
- इसलिए, आप उस सीमा से आगे नहीं जा सकते — पानी की गति की सीमा बनी रहती है।
अब इसी तुलना को प्रकाश की गति से जोड़कर समझते हैं
- ब्रह्मांड में प्रकाश की गति, उसकी एक प्राकृतिक स्पीड लिमिट है, ठीक वैसे ही जैसे पानी में एक सीमा है नाव के लिए।
- जैसे-जैसे कोई वस्तु तेज़ चलती है, उसका वज़न (या ऊर्जा की ज़रूरत) बढ़ने लगता है। और अगर आप उस वस्तु को प्रकाश की गति तक ले जाना चाहें, तो उसे अनंत ऊर्जा देनी पड़ेगी। इसी कथन में आइंस्टीन का प्रसिद्ध समीकरण कुंडली मार कर बैठा है। इस अनुच्छेद को तब तक पढ़े जबतक कुंडली खुल न जाए।
- और ब्रह्मांड में किसी के पास अनंत ऊर्जा नहीं है।
अब मान लीजिए कि आप सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं, और हर अगली सीढ़ी पहले से दुगनी ऊँची है। शुरू में तो आप चढ़ सकते हैं, लेकिन एक बिंदु पर आकर अगली सीढ़ी इतनी ऊँची होगी कि आप चाहें भी तो नहीं चढ़ सकते — क्योंकि आपकी ताकत की सीमा है।
ठीक वैसे ही, प्रकाश की गति से तेज़ जाना उस सीमा से ऊपर जाना है जो ब्रह्मांड में तय है। जब मैं ब्रह्माण्ड में तय कह रहा हूं तो आशय उस नियामक से है जो नियमों का नियंता है।
सारगर्भित विंदू
जैसे पानी में नाव की एक सीमा होती है, वैसे ही ब्रह्मांड में गति की एक सीमा है — और वह है प्रकाश की गति। उसे पार करने के लिए अनंत ऊर्जा चाहिए, जो संभव नहीं है। इसलिए हम प्रकाश से तेज़ नहीं जा सकते। अपनी कल्पनाशीलता को पंख देने के लिए याद रखें कि वेद में ब्रह्मांड को महासमुद्र भी कहा गया है। अब उस महासमुद्र में प्रकाश की यात्रा की गति को अचर बनाए हुए है अजर अचर अगोचर की अव्यक्त शक्ति ने।
© अजीत कुमार, सर्वाधिकार सुरक्षित।
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