मनुष्य की बौद्धिक यात्रा दो मुख्य दिशाओं में प्रवाहित होती है—चिंतन और विमर्श। दोनों ही प्रक्रियाएँ विचारों के संसार से जुड़ी हैं, किंतु उनका स्वभाव, माध्यम और उद्देश्य भिन्न हैं।
चिंतन वह आंतरिक प्रक्रिया है जिसमें मन एकाग्र होकर किसी विचार, समस्या या सत्य के गूढ़ पक्षों को समझने का प्रयास करता है। यह आत्मकेन्द्रित होता है, जहाँ चित्त भीतर की ओर मुड़कर विचारों का अवलोकन करता है।
गहन और घनीभूत चिंतन के लिए एकांत और एकालाप की आवश्यकता होती है। जैसे कोई योगी ध्यान में लीन होकर ब्रह्म की अनुभूति करता है, वैसे ही चिंतक एकाग्र होकर सत्य की तहों तक पहुँचने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया में बाह्य व्यवधान न्यूनतम होने चाहिए, तभी विचार की गहराई संभव होती है।
विपरीत दिशा में विमर्श आता है, जो मूलतः बहिर्मुखी है। यह लेखन, संवाद, बहस या संवादात्मक अभ्यास के माध्यम से विचारों की अभिव्यक्ति और साझेदारी का माध्यम बनता है।
लेखन, यद्यपि बाह्य रूप में अकेले किया जाता है, फिर भी यह एक प्रकार का आत्म-विमर्श होता है जिसमें लेखक अपने विचारों को क्रमबद्ध करता है, उन्हें भाषा में ढालता है और अपने ही विचारों के प्रति सजग हो जाता है। दूसरी ओर, संवाद या सामूहिक विमर्श में विचारों का आदान-प्रदान होता है, जहाँ विविध दृष्टिकोणों का समागम एक नए बौद्धिक परिदृश्य का निर्माण करता है।
हालाँकि विमर्श प्रेरणा प्रदान कर सकता है, नई दृष्टियाँ खोल सकता है, किंतु गहन चिंतन की अवस्था में ले जाने की उसकी क्षमता सीमित होती है। चिंतन एक प्रकार से प्रत्यावर्तनशील अंतःयात्रा है, जबकि विमर्श प्रस्तावनात्मक बौद्धिक यात्रा—दोनों के मार्ग और साधन अलग हैं।
इस प्रकार, जहाँ चिंतन समस्या की तह में उतरने की प्रक्रिया है, वहीं विमर्श उस विचार को साझा करने, परखने और विकसित करने का एक मंच। दोनों एक-दूसरे के पूरक अवश्य हो सकते हैं, किंतु उनके क्षेत्र और प्रभाव पृथक हैं। गहन घनीभूत चिंतन के लिए एकांत और एकालाप चाहिए जबकि विमर्श में यह गुण कदाचित सम्भव ही नहीं है।
अंतिम कसौटी
एक सच्चा चिंतक जब विमर्श करता है, तो उसके विचारों में परिपक्वता और गंभीरता होती है; वहीं एक सजीव विमर्श कभी-कभी नये चिंतन के द्वार भी खोल सकता है। गहन घनीभूत चिंतन एक अच्छे विमर्श की पूर्व शर्त है।
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