(समीक्षक) अब देखो भाई! इस भूगोल में 132 सूर्य और 132 चन्द्रमा जैनियों के घर पर तपते होंगे! भला जो तपते होंगे तो वे जीते कैसे हैं? और रात्रि में भी शीत के मारे जैनी लोग जकड़ जाते होंगे? ऐसी असम्भव बात में भूगोल, खगोल के न जानने वाले फंसते हैं; अन्य नहीं। जब एक सूर्य इस भूगोल के सदृश अन्य अनेक भूगोलों को प्रकाशता है तब इस छोटे से भूगोल की क्या कथा कहनी।
अब विचारणीय है कि सत्यार्थ प्रकाश में ऐसा दोष क्यों?
इस प्रश्न के उत्तर के लिए आपको सत्यार्थ प्रकाश या स्वामी दयानंद सरस्वती के लिखे गए अन्य ग्रन्थों के लेखन व प्रकाशन की रीति को समझना होगा। साथ ही, स्वामी दयानंद सरस्वती के व्यक्तित्व और जीवनी को भी समझना होगा।
इसके बिना इसपर सम्यक विचार करना सम्भव नहीं है। अन्यथा वही बात होगी की दयानंद के अंधभक्त बनकर हर बात को स्वीकार कर लो जो आजकल के आर्यसमाजियों में बहुत प्रकट है, जबकि स्वामी दयानंद सरस्वती इस तरह के प्रवृत्ति के विरोधी थे। साथ ही, उनका कहना था कि अगर मेरे किसी भी ग्रंथ में किसी भी प्रकार की त्रुटि है तो उसको सुधारने के लिए तैयार हैं यदि बिना पक्षपात के कोई गलती दिखाए।
उसका एक सबसे उत्तम तरीका यह है कि देखा जाए कि वह तथ्य वेद सम्मत या विरुद्ध है, वेद में उसका प्रमाण है या नहीं। क्योंकि दयानंद सरस्वती वेद को ही अंतिम प्रमाण मानते थे उनका कहना था कि मेरे से भी गलती हो सकती है अतः वेद के आलोक में ही सत्यान्वेषण हो।
अब प्रश्न बनता है कि क्या सूर्य पर जीवन का कोई प्रमाण वेद के किसी मन्त्र में है? इस पर वेदज्ञ ही कह सकते हैं। हम अपने सामान्य बुद्धि से अब विचार करते हैं कि सच क्या हो सकता है।
स्वामी जी के पुस्तकों की छपाई बहुधा बिना बहुत समय व बिना बहुत ध्यान दिए संशोधन के छपे। कारण संस्कृत के विद्वान जो दयानंद के ग्रन्थों की जांच उनके वैदिक मत के अनुसार करें, कम मिलते थे जिनको इस कार्य के लिए रखा वे भी विचार वैधर्म्य और कपटवश भी गड़बड़ करते थे।
सत्यार्थ प्रकाश दयानंद सरस्वती ने नहीं लिखा। वे ग्रन्थ नहीं लिखते थे, समय की बचत के लिए बोल कर लिखवा लेते थे। इसी रीति से सत्यार्थ प्रकाश और अन्य ग्रन्थ लिखे गए। सुनकर लिखते समय कुछ गलतियां होना स्वाभाविक था। छपने के पहले संशोधन कार्य के संस्कृत विद्वानों की आवश्यकता थी। साथ ही प्रिंटिंग कार्य उस समय आज की तरह उन्नत नहीं था, उसके कष्ट का वर्णन करना ही क्या!
दुःख की बात यह है कि स्वामी जी के पास ग्रन्थों के पुनर्निरीक्षण का समय नहीं रहता था। वे कई कई घण्टे प्रवचन दिया करते थे।
कुछ विद्वानों ने उन्हें समझाया कि स्वामी जी आपका प्रवचन हमेशा नहीं रहेगा इसलिए अगर आप अपने विचारों को लिखित रूप में रख दें तो ज्यादा उचित रहेगा। अच्छी बातों को वह तुरंत अपना लेते थे। जब उनसे ग्रंथ लिखने के लिए कुछ लोगों ने परामर्श और आग्रह किया तो तुरंत मान गए और इसी कड़ी में उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश लिखवाना शुरू करवाया। यहां तक की उन्होंने भारत में मुद्रणालय, प्रिंटिंग प्रेस स्थापित कराया जिससे कि उनके ग्रन्थों को छापा जा सके। प्रशासनिक स्तर पर अपने कर्मचारियों को सबसे अधिक वेतन दिया करते थे लिखने वालों को भी उस जमाने के अनुसार ज्यादा धन दिया करते थे।
इसके बावजूद स्वामी जी के मूर्तिपूजा विरोध के कारण कई विद्वानों जिसमें कुछ लेखन कार्य से सम्बद्ध लोग भी थे उन्होंने लिखते समय सत्यार्थ प्रकाश और अन्य ग्रन्थों में मिलावट की। छपाई में बिना सुधार के वे छपे। जब कोई व्यक्ति स्वामी जी को दोष दिखाता तो सुधार भी करते थे इत्यादि यहाँ सब लिखना सम्भव नहीं है। इसके लिए स्वामी दयानंद सरस्वती के पत्रावली को पढ़ना होगा। पत्रावली के कुछ अंश यहां भविष्य में डाल दूंगा ताकि विदित हो कि कितने कष्टों में ग्रन्थ लेखन कार्य हुआ है।
स्वामी दयानंद सरस्वती के बहुत सारे पत्राचार लाहौर आर्य समाज में भारत विभाजन के दौरान नष्ट हो गए जो बचे है उनसे भी बहुत कुछ ज्ञात होता है।
इस पर एक विवेचना अलग से करूँगा वसु शब्द पर ध्यान देना होगा। वास, निवास वसु इत्यादि रहने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अब जब वसु शब्द का सत्यार्थ प्रकाश के 8वे समुल्लास में जो अर्थ है उसको समझना होगा। वसु वह है जो वसाने में सहायक हो। यह आवश्यक नहीं कि वहाँ कोई रह रहा हो जैसे सूर्य को वसु कहा जाता है क्योंकि वह जीवन को बसाने में सहायक है बिना सूर्य के जीवन को बसाना सम्भव नहीं है। इसको नहीं समझने के कारण ही सत्यार्थ प्रकाश के लेखन के दौरान यह गलती हुई है। मैंने पहले ही जैनियों के प्रकरण में दिखा दिया है कि दयानंद कह रहे हैं कि जब इतने सूर्य तपाते होंगे तो जीवित कैसे रह सकते हो।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 ईस्वी में सत्यार्थ प्रकाश लिखा और बाद के समय में उन्होंने प्रवचन कार्य कम कर दिया था और अपना अधिकांश समय वेद के भाष्य करने में लगाते थे। घण्टों समाधिस्थ रहकर वेद भाष्य किए। 1875 के बाद लगभग साढे आठ साल का उनका सामाजिक साहित्यिक कार्य है। अल्प जीवन रहा कि वह अपने वेद के भाष्य का भी संशोधन करवा सके तो उसमें भी कई प्रकार की त्रुटियां रह गई है ऐसा माना जाता है। लेकिन जो भी है उत्तम है। सत्यार्थ प्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका से मुझे व्यक्तिगत रुप में सीखने के लिए बहुत कुछ मिला है।
मुख्य विन्दु:
- स्वयं सत्यार्थ प्रकाश में जैनियों के प्रकरण में स्वामी दयानंद यह कह रहे हैं कि सूर्य के ताप को कोई सह नहीं सकता तो सूर्य पर जीवन होने की बाद कैसे लिखवा देंगे? यह तो कॉमन सेंस की बात है। उसी ग्रंथ में जब सूर्य पर जीवन की परिकल्पना का खंडन कर रहे है तो यह मान्य नहीं हो सकता है कि सूर्य पर जीवन की बात की हो। यह तो पूर्वाग्रह लोगों का कार्य है जो सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथ में क्षेपक ढूंढते रहते हैं।
- स्वामी जी के आकस्मिक देहावसान के कारण सत्यार्थ प्रकाश का पुनः संशोधन ना हो सका नहीं तो उस गलती को भी सुधार दिया जाता क्योंकि वर्तनी संबंधी कई अशुद्धियां सत्यार्थ प्रकाश में रह गई है। बुद्धिमान पुरुष समझ सकते हैं बाकी मूर्खों को समझाना व्यर्थ है।
- सत्यार्थ प्रकाश अत्यंत अल्प अवधि में लिखा गया। लिखने वाले स्वामी दयानंद नही थे वह केवल बोल रहे थे और लिखने वाला कोई और व्यक्ति था । पहली बार सत्यार्थ प्रकाश में इसी वजह से गड़बड़ी हुई थी। लिखने वाले ने अर्थ को ना समझ कर और अन्य कारणों से कुछ और ही लिख दिया था जिसका संशोधन करके दूसरी बार सत्यार्थ प्रकाश छापा गया। आश्चर्य यह है कि अत्यधिक अल्प अवधि में लिखा गया सत्यार्थ प्रकाश इतना अनुपम ग्रंथ है।
- वसु दो प्रकार का है एक प्रकाशक वसु और दूसरा प्रकाश्य वसु। प्रकाशक वसु जैसे सूर्य पर जीवन संभव नहीं हो सकता इसके विपरीत जो प्रकाश्य वसु है वहां पर जीवन की संभावना हो सकती है जैसे चंद्रमा और पृथ्वी। बसने वाले और बसाने वाले दोनों को ही वसु कहते हैं। स्पष्ट है कि ऋषि का मंतव्य सूर्य और पृथ्वी आदि लोको को मिलाकर वसु कहने से है। महर्षि ने कहना चाहा है कि जो प्रकाश करने वाला वसु है जैसे सूर्य वहाँ जीवन नहीं हो सकता और उस प्रकाश के प्रभाव में जो वसु है अर्थात प्रकाश्य वसु जैसे पृथ्वी वहीं पर जीवन संभव हो सकता है।
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