सोमवार, 18 अगस्त 2025

ईश्वर के बिना आध्यात्मिकता

क्या ईश्वर के अस्तित्व को माने बिना कोई आध्यात्मिक हो सकता है?


क्या ईश्वर के अस्तित्व को माने बिना कोई आध्यात्मिक हो सकता है? इस प्रश्न पर परंपरा और तात्त्विक विवेक से जुड़ा हुआ एक दार्शनिक लेख


क्या आध्यात्मिकता ईश्वर के बिना संभव है? — एक तात्त्विक विमर्श

आज के बौद्धिक और दार्शनिक विमर्श में यह विचार तेजी से फैल रहा है कि आध्यात्मिकता का संबंध ईश्वर में विश्वास से नहीं है। यह कहा जा रहा है कि व्यक्ति अपने भीतर झांक करचेतना की अनुभूति करके या संसार से अलग होकर भी आध्यात्मिक हो सकता है — भले ही वह सृष्टिकर्ता, परम नियंता या किसी ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार न करे।

किन्तु यह धारणा न तो शाश्वत भारतीय चिंतन का अंग है, न ही यह पूर्ण आध्यात्मिकता को समझने की गहराई रखती है। यह एक अर्वाचीन, पश्चिमी या मनोवैज्ञानिक आध्यात्मिकता की देन हो सकती है, परंतु भारतीय दर्शन की पुरातन और समग्र दृष्टि इससे कहीं अधिक व्यापक है।


आध्यात्मिकता — क्या केवल आत्मा तक सीमित है?

यूनानी दार्शनिक सुकरात ने कहा था — “Know thyself” (स्वयं को जानो)। यह आत्म-अन्वेषण की प्रेरणा देता है। किन्तु भारत के प्राचीन दार्शनिक ने इस पर गूढ़ उत्तर दिया:

“यदि तुमने केवल आत्मा को जान लिया, परंतु सृष्टि के परम नियंता — परमात्मा को नहीं जाना, तो आत्मा का जानना व्यर्थ है। आत्मा का अस्तित्व तभी अर्थवान होता है जब वह ब्रह्म से सम्बद्ध हो।”

यह उत्तर केवल एक विचार नहीं, बल्कि भारतीय दर्शन का केंद्रीय सूत्र है — चाहे वह उपनिषद हों, वेदांत हो, गीता हो, या सांख्य हो।


बुद्ध का मौन — ईश्वर के निषेध का प्रमाण नहीं

यह अक्सर कहा जाता है कि गौतम बुद्ध ईश्वर के विषय में मौन रहे, अतः वे नास्तिक थे। किन्तु यह त्रुटिपूर्ण व्याख्या है। मौन कभी-कभी स्वीकार की भाषा भी हो सकती है, या उस विषय की अभिव्यक्ति को सीमित मानने का प्रतीक हो सकती है। शास्त्रों में भी कहा गया है:

“मूर्खाणां बलं मौनम्” — यदि कोई व्यक्ति ईश्वर जैसे मूल प्रश्नों पर मौन है, तो वह उसकी अज्ञानता भी हो सकती है।

बुद्ध की साधना, नैतिकता और जीवन की दृष्टि उच्च है, लेकिन परम सत्ता के निषेध के आधार पर उन्हें पूर्ण आध्यात्मिकता का प्रतिनिधि मान लेना, भारतीय परंपरा के दृष्टिकोण से स्वीकार्य नहीं।


ब्रह्म को जाने बिना आत्मज्ञान अधूरा है

उपनिषदों में बार-बार यह प्रतिपादित किया गया है कि आत्मा का परम ज्ञान तभी संभव है जब वह उस परम तत्त्व — ब्रह्म — से एकत्व को पहचान ले:

“ब्रह्मवित् ब्रह्मैव भवति।”
(जो ब्रह्म को जानता है, वह स्वयं ब्रह्मवत हो जाता है।)

आध्यात्मिकता केवल अंतर्मुखी ध्यान या व्यक्तिगत अनुभूति नहीं है, बल्कि संसार, आत्मा और परमात्मा के त्रैतीय संबंध की गहन अनुभूति है। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:

“यो मां पश्यति सर्वत्र, सर्वं च मयि पश्यति।”
(जो मुझे सबमें देखता है, और सबको मुझमें — वही ज्ञानी है।)


आध्यात्मिकता = परमात्मा का साक्षात्कार

यदि परमात्मा का अस्तित्व नहीं स्वीकारा गया, तो आत्मा भी अनाथ हो जाती है। उसका अस्तित्व निराधार और दिशाहीन हो जाता है। जीवन का अर्थ भी तब तक नहीं बनता जब तक वह सृष्टि और उसके नियंता के परिप्रेक्ष्य में न देखा जाए।

आध्यात्मिकता का शुद्ध स्वरूप तभी उभरता है जब हम मानते हैं:

  • सृष्टि का कोई आदि है, और वह आदि ब्रह्म है।
  • आत्मा उसी परम सत्य की अभिव्यक्ति है।
  • संसार का अनुभव उसी परम सत्ता के नियमों में बंधा है।

निष्कर्ष

यह मिथ्या धारणा है कि आध्यात्मिकता ईश्वरविहीन हो सकती है। यह विचार समकालीन बौद्धिक प्रवृत्तियों की देन हो सकता है, किन्तु वह सनातन आध्यात्मिकता की पूर्णता को नहीं दर्शाता।

भारतीय दर्शन कहता है:

“यस्य न विद्या ब्रह्मणि, तस्य विद्या मूढ़ता भवति।”
(जिसकी विद्या ब्रह्म से रहित है, उसकी विद्या केवल अज्ञान है।)

इसलिए परमात्मा के बिना आत्मा का ज्ञान, और आत्मा के बिना संसार का अनुभव — दोनों अधूरे हैं। तीनों का संबंध ही पूर्ण आध्यात्मिकता का आधार है।


© अजीत कुमार, सर्वाधिकार सुरक्षित।

रविवार २० जुलाई २०२५

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