पुनर्जन्म और भाग्य
जब हम कोई कार्य बुद्धि विवेक के विपरीत करते हैं तब हमे भरम हो जाता है कि काल में दोष है। समय कोई भी बुरा नहीं होता। व्यक्ति का बुद्धि विवेक ही कर्म का निर्धारण करते हैं।
अज्ञान के विस्तार से समाज में बुरा होता है न कि काल का कोई ऐसा गुण है जिसकी वजह से समाज में बुरा होता है। गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म का सिद्धान्त दिया है न कि भाग्य का सिद्धान्त। कर्म के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक प्राणी कर्म करने के लिए स्वतन्त्र है। मनुष्य की स्वतन्त्र इच्छा शक्ति है। अतः मनुष्य ही अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है परंतु कर्म का फल मनुष्य के अधीन नहीं है, कारण प्रकृति के नियमों के अनुसार ही प्राणी को फल मिलता है, यादृच्छिक random रूप से नहीं। अतः भगवान श्रीकृष्ण ने कहा की मनुष्य कर्म करने के लिए स्वतन्त्र है परंतु फल उसके अधीन नहीं है।
स्पष्ट है कि जीवन की दशा का निर्धारण प्राणी के कर्म पर निर्भर है। प्रश्न है कि फिर भाग्य अथवा प्रारब्ध क्या है? भाग्य प्राणी के संचित कर्मों का ही दूसरा नाम है। जिन कर्मों का फल व्यक्ति को इस जीवन में नहीं मिल पाता उसका फल अगले जन्म में मिलता है। ध्यान देने की बात है की पुनर्जन्म का सिद्धान्त वस्तुतः कर्म के सिद्धान्त से अनुगृहीत derived है। अर्थात Theory of Reincarnation is a corollary of the Law of Karma. प्रारब्ध सञ्चित कर्म का पर्याय है, दूसरा नाम है।
प्रारब्ध की गलत व्याख्या के कारण हिन्दू समाज भाग्यवादी बन गया जिसका दुष्परिणाम आज ही समाज को भोगना पड़ रहा है। प्रारब्ध संचित कर्म है और वर्तमान जीवन के कर्म के अनुसार नए कर्मों का संचय होता है जिसे भाग्य कहते हैं। अतः जीवन में कर्म मुख्य है न कि भाग्य या प्रारब्ध। जैसे एक व्यक्ति अपने जीवन में कमाई का कुछ हिस्सा बचा लेता है इसका अर्थ यह नही है कि बचत पूंजी आय से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाए। आय ही बचत का आधार है न कि इसका विपर्यय/उल्टा।
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