बुधवार, 2 अक्टूबर 2024

इंसान को भगवान ने बनाया तो भगवान को किसने बनाया?

इंसान को भगवान ने बनाया तो भगवान को किसने बनाया?

जब कोई व्यक्ति यह प्रश्न पूछता है कि भगवान को किसने बनाया तो वह यह बात भूल जाता है कि संसार में दो तरह की वस्तुएं होती है- एक वस्तु ऐसी होती है जिसका निर्माण किया जाता है और दूसरी वस्तु ऐसी होती है जिसका निर्माण नहीं किया जा सकता है.

पूछने वाला यह भूल जाता है की दुनिया में ऐसी भी चीज है जिसका निर्माण नहीं किया जाता है वह परिवर्तनशील नहीं है वह नित्य है. जिस वस्तु का निर्माण नहीं किया जा सकता है उसे नित्य सत्ता बोलते हैं, उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है वह अपरिवर्तन यह होता है इसके विपरीत जिस वस्तु का निर्माण होता है वह परिवर्तनशील होता है उसमें क्षय होता है, अनित्य होता है

इस प्रकार संसार में सत्ता का द्वन्दात्मक स्वरूप देखने को मिलता है जैसे- प्रकाश है तो अंधकार है, सत्य है तो असत्य है इसी प्रकार अनित्य है तो नित्य भी है. पहले इतनी बात समझ में आ जाए तब यह समझ में आ जाएगा कि हर वस्तु का निर्माण नहीं होता है. जब यह बात समझ में आ जाएगी तो इस प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा कि भगवान को किसने बनाया. भगवान को किसी ने नहीं बनाया क्योंकि वह नित्य सत्ता है 

और जिस वस्तु का निर्माण नहीं होता है, नित्य सत्ता है, वह दो प्रकार के होते हैं एक को जीवात्मा कहते हैं और दूसरे को परमात्मा कहते हैं.

इतना समझ और विश्वास उत्पन्न हुआ हो तो आगे पढ़े-

बनाने वाला कभी नहीं बनता क्योंकि यह सूत्र है कर्त्ता स्वतन्त्रः

व्याकरण की दृष्टि से कर्त्ता उसे ही बोलते हैं जो कार्य करता है. इस पर थोड़ा चिंतन मनन करना जरूरी है. जो कार्य नहीं कर सकता उसे कर्त्ता नहीं कहते है. किसी को कर्त्ता इसीलिए कहते हैं क्योंकि वह अपने कार्य करने में सक्षम है. जड़ पदार्थ को कर्त्ता नहीं कहते है. अब आगे समझे

बनता वही है जिसमें बिगाड़ या विकृति की प्रकृति हो। नास्तिक इतनी बात नहीं समझना चाहते। जिसमें बिगाड़ ही नहीं, बिगाड़ जिसका स्वभाव नहीं है उसके बनने की बात करना मूर्खता और कल्पनाशीलता का नितांत अभाव है। भगवान जब नित्य चेतन सत्ता है तो उसका बनना क्यों मानते हो? यह क्यों सोचते हो कि हर वस्तु में विकृति होती ही है। ऐसा इसी लिए सोचते हो क्योंकि अपना विचार जड़ 'प्रकृति' पर केंद्रित करते हो जिसमें चेतना नहीं परन्तु विकृति गुण है। अपने चेतना की प्रकृति पर ध्यान केंद्रित करो। यदि चेतना की सत्ता परिवर्तनीय हो तो उसमें सत्ताज्ञान घटे बढ़े जबकि ऐसा नहीं होता है। जब सत्ताज्ञान घटे बढ़े तो कोई भी व्यक्ति जीवन पर्यन्त यह मैं हूँ न कहे। शरीर परिवर्तन करता है फिर भी चेतना कहती है कि मैं वही हूँ। सत्ता भाव नित्य बना रहता है।

एक नित्य सत्ता अवश्य चाहिए जो सभी परिवर्तनों का साक्षी हो। यह नित्य सत्ता ज्ञानयुक्त चेतन भी होना चाहिए ताकि वह परिवर्तन को 'समझ' सके उसका दर्शन करे। उसमे बिगाड़ की कल्पना नहीं की जा सकती

प्रकृति के विपरीत जो चेतन सत्ता है उसमें बिगाड़ नहीं होता क्योंकि यदि उसमें ही बिगाड़ हो तो वह निर्माण कैसे करें अतः शास्त्र का सूत्र है कि कर्ता स्वतंत्र है।

भगवान कोई कार्य नहीं कि उसका कोई कारण हो। कार्य का कारण होता है न कि कारण का कारण। गेंहूँ से आटा बनता है। आटा से आटा नहीं बनता। कारण से कार्य होता है पहले कारण फिर कार्य। अभिप्राय यह है कि प्रत्येक कार्य का कारण होता है।

इस जगत में सदैव विकार अर्थात परिवर्तन होता रहता है जिसे घटना कहते हैं। हर घटना का कोई न कोई कारण होता है। जिसमें विकार होता है उसे प्रकृति कहते हैं।

अब सम्पूर्ण जगत विकारी है तो उसका भी कारण होगा यह एक विशुद्ध तार्किक जिज्ञासा है। यह कारण ही ईश्वर, परमात्मा आदि अलग अलग नामों से जाना जाता है।

ईश्वर जगत या विकार युक्त प्रकृति का कारण है अतः उसका कारण नहीं।  परमात्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता। वह नित्य, शाश्वत है। जिसमें कोई परिवर्तन ही नहीं उसका कारण नहीं होता। प्रकृति का निमित्त कारण परमात्मा है जबकि सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति के मूल अव्यक्त जड़ तत्व हैं। अर्थात मूल प्रकृति अव्यक्त जड़ तत्त्व है। उदाहरण के लिए किसी जड़ तत्त्व को तोड़ने पर मूल तत्त्व के रूप में इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन इत्यादि पाएं गये परन्तु इनको भी तोड़ा जा चुका है और क्वार्क भी कभी तकनीकी सम्भावना होने पर तोड़े जा सकते हैं। यह क्रम अनन्त रूप में सम्भव है और इसका दार्शनिक निष्कर्ष यह है कि मूल जड़ तत्त्व अव्यक्त है। सृष्टि एक क्रिया है और प्रत्येक क्रिया का कर्त्ता अवश्य ही होता है। कर्त्ता में चेतना व ज्ञान का होना अनिवार्य है अन्यथा वह कार्य नहीं कर सकता है। उस चेतन तत्त्व के दो रूप हैं आत्मा और परमात्मा।

सत्य तो यह है कि मूल अव्यक्त प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा अनादि हैं। इनका कोई कारण नहीं। केवल विकारी स्वरूप प्रकृति का कारण है। मूल अव्यक्त प्रकृति से अभिप्राय प्रकृति की उस प्रारम्भिक स्थिति से है जिसमें परिवर्तन होता है। अव्यक्त इसलिए क्योंकि उस स्थिति तक मन कभी पहुंच ही नहीं सकता।

समस्या ईश्वर को समझना नहीं, बल्कि कारण के अर्थ को समझने में होती है। ईश्वर कोई कार्य नहीं कि उसका कोई कारण हो। कार्य सदैव विकार या परिवर्तन को कहते हैं।

किसी भी कार्य में कई कारण होते हैं लेकिन तीन कारण मुख्य हैं।

किसी भी चीज के बनने में तीन बातें निहित है। पहला, उपादान कारण जैसे आटा, नमक इत्यादि रोटी बनने के उपादान कारण हैं। दूसरा, निमित्त कारण कोई भी चीज किसी निमित्त या उद्देश्य विशेष के लिए बनता है जैसे रोटी भूख मिटाने के लिए। तीसरा कर्त्ता अर्थात बनाने वाला । कर्त्ता चेतन ज्ञानयुक्त तत्व है जिसे उस वस्तु को बनाने का ज्ञान है, पूर्ण सामर्थ्य है। इन तीनों के बिना कोई कार्य नहीं होता। प्रत्येक कार्य में ये तीन कारण अवश्य होते हैं। इसके अतिरिक्त काल, दिशा आदि गौण कारण हैं।

सृष्टि की प्रत्येक वस्तु मोबाईल, कैमरा, कम्प्यूटर इत्यादि कार्य के तीन कारण इसी प्रकार विचार कर सकते हैं।

प्रकृति भी एक कार्य है क्योंकि इसमें विकार है। अतः इसके भी तीन कारण हैं। प्रथम जड़ प्रकृति का अव्यक्त मूलरूप, द्वितीय जगत का कर्त्ता अर्थात पूर्णज्ञानी परमात्मा और तीसरा जगत बनाने का उद्देश्य, जीवों का उद्धार। मूल अव्यक्त प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा अनादि हैं। इनका कोई कारण नहीं। परमात्मा और जीवात्मा को पुरूष भी कहा गया है।

इस बारे में विशेष स्वाध्याय पर निर्भर है।

Note: स्त्री के रज और पुरुष के वीर्य के मिलने से एक मानव जीवन की उत्पत्ति होती है। ठीक इसी प्रकार अन्य जीवों का भी अंडे से अंडज  या पसीने से स्वेदज या किसी अन्य तरीके से जीवन निर्मित होता है लेकिन हमेशा ही जीवन बनने की प्रक्रिया सदैव एक गणितीय तार्किक आधार पर होती है यदि जीवन का निर्माण एक Random घटना होती तो जीवन का विघटन या सृष्टि का विघटन भी रेंडम तरीके से होता लेकिन  ऐसा देखने में नहीं आता स्पष्ट है कि जीवन का निर्माण, रक्षा और नाश अत्यंत बुद्धिमान सत्ता के द्वारा किया जा रहा है. जब नास्तिक यह कहते हैं कि यह जीवन या सृष्टि ऐसे ही बिना किसी कारण सत्ता के Randomly हो गई इससे ज्यादा मूर्खता की बात क्या हो सकती है, विचार करने यह क्या बात समझ में आ सकती है। 

© अजीत कुमार, सर्वाधिकार सुरक्षित।

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