बुधवार, 2 अक्टूबर 2024

अलौकिक संस्कृत

लौकिक संस्कृत किस प्रकार अलौकिक संस्कृत से भिन्न है?

लेखक अजीत कुमार

लोक से अलौकिक शब्द बना है। लोक का अर्थ होता है संसार। अतः सांसारिक अर्थ में प्रयोग किए जाने वाले संस्कृत शब्दों को लौकिक संस्कृत कहते हैं जबकि किसी संस्कृत शब्द का लोक प्रचलित या संसार में प्रचलित सामान्य अर्थ से भिन्न अर्थ में प्रयोग किए जाने वाले अर्थ में प्रयोग को अलौकिक संस्कृत करते हैं। अब लौकिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत में अंतर को विस्तार से देखते हैं।
लौकिक संस्कृत का संबंध लोक में प्रचलित शब्द और वाक्य विन्यास से है जबकि अलौकिक संस्कृत का संबंध वेद से जुड़ा हुआ है। वेद के अतिरिक्त अन्य ग्रंथों जैसे ब्राह्मण ग्रंथ, स्मृति, उपनिषद, रामायण, महाभारत आदि में प्रयुक्त संस्कृत को लौकिक संस्कृत कहते हैं। वेद के संस्कृत को अलौकिक संस्कृत कहा जाता है।

ऐसा नहीं है की लौकिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत में अलग-अलग शब्द है। लौकिक संस्कृत में शब्दों के प्रचलित अर्थ है जबकि वेद में प्रयुक्त संस्कृत शब्दों के अलौकिक अर्थ है।

इसका अर्थ क्या है। वेद में प्रयुक्त संस्कृत शब्द के अर्थ कैसे लोक प्रचलित अर्थ से भिन्न माना जाता है इस बात को हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं। मान लीजिए कोई विद्यार्थी भौतिकी शास्त्र का अध्ययन कर रहा है तो उसमें प्रयुक्त शब्द जैसे कार्य, बल, विद्युत, चुंबकत्व इत्यादि शब्दों का अर्थ विज्ञान के परिभाषिक शब्द के अनुसार समझा जाता है। लोक में प्रचलित सामान्य अर्थ का भौतिक शास्त्र में कार्य शब्द का अर्थ नहीं होता जो कि आम बोलचाल में होता है।
इसी तरह लौकिक संस्कृत और अलौकिक संस्कृत में अंतर है।

उदाहरण के लिए लौकिक संस्कृत में अश्व शब्द का अर्थ घोड़ा होता है जबकि अलौकिक संस्कृत में अश्व शब्द के अनेक अर्थ होते हैं जिसे प्रकरण के अनुसार समझा जाता है। अश्व शब्द का अर्थ तीव्र गति से गमन करने वाला होता है। क्योंकि घोड़ा तीव्र गति से गमन करता है इसलिए उसे अश्व कहा जाता है परंतु विद्युत भी अत्यधिक वेग से गमन करती है तो उसे भी अश्व कहा गया है। वेद में अश्व शब्द का इंद्र, विद्युत, प्रकाश इत्यादि अनेकानेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। इंद्र अर्थात मन तीव्र गति से गमन करता है अतः मन या इंद्र को भी अश्व कहा गया है।

इस तरह अलौकिक संस्कृत में सामान्य अर्थ से अलग अर्थ ग्रहण कर वेद मंत्रों का विचार किया जाता है और यह कार्य साधारण नहीं है इसके लिए अपार तर्कशक्ति और ऊहाशक्ति की जरूरत होती है। वेदमन्त्रों के इस तरह के अलौकिक अर्थ प्रकाश से विज्ञान का ग्रहण होता है।

सामान्य भ्रांति
वेद को समझने के लिए केवल संस्कृत के शब्द या व्याकरण का ज्ञान ही काफी नहीं है। उदाहरण के लिए अगर कोई व्यक्ति अंग्रेजी भाषा और ग्रामर में विद्वत्ता हासिल कर लेता है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह भौतिकी शास्त्र या अन्य किसी विज्ञान मे विशेषज्ञ या निपुण हो जाए। वेद के मंत्रों के अर्थ को समझने के लिए संस्कृत व्याकरण और शब्दकोश का ज्ञान ही काफी नहीं है। उसके लिए अपूर्व तर्कशक्ति और ऊहाशक्ति की आवश्यकता मानी जाती है। साथ ही लोकेषणा व वितेषणा से रहित व्यक्ति ही वेद मंत्रों के प्रकाशार्थक के रूप में मान्य माना जाता है। वेद के मंत्रों के प्रकाशक में अपार तर्कशक्ति और ऊहाशक्ति होती है। मात्र संस्कृत व्याकरण और शब्द ज्ञान का सामर्थ्य ही काफी नहीं है। यही कारण है कि आचार्य सायण और महिधर जैसे वेद भाष्यकारों के वेदभाष्य में दोष पाए गए हैं। इसी तरह संस्कृत के शब्दकोश के आधार पर व संस्कृत व्याकरण के साधारण ज्ञान के बल पर मैक्स मूलर जैसे जर्मन वेद भाष्यकार के वेदभाष्य में अपार दोष है।

आधुनिक काल में वेदों का सर्वश्रेष्ठ भाष्य आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा किया गया है। वेदों के भाष्य को समझना भी सरल नहीं। इस सम्बंध में वेद भाष्य की भूमिका को समझाने के लिए उन्होंने ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका नामक ग्रन्थ लिखा।

© अजीत कुमार, सर्वाधिकार सुरक्षित।

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