खुदगर्ज
गम गुल खिलते हैं
दुखों के महकने के लिए
शमां पे जाते है परवाने
प्रेमाग्नि में जलने के लिए
आधी काली रात में
दिल जलता है उजाले के लिए
मयकशी में हाथ उठता है
पैमाने साकी के लिए
इस हमपरस्त ज़माने में
जिए तो क्या जिए
हँसती है दुनिया गर
आंसू आप अपना पिए
कोई नहीं जानता है
दर्द ए दिल का मर्ज
औरों को क्या कहें खुदगर्ज
जब अपने बने हैं बेदर्द
अच्छा है जो राजेदिल है
वो राज़ न कहूं
अच्छा है इक दर्द
सीने के पास है
वरना इस ज़माने में कौन
मरते दम साथ है ।
" श्रीशेष "
(अतीत के झरोकों से )
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