रविवार, 25 अगस्त 2024

मूर्ति पूजा का विरोध क्यों?

आर्य समाज चित्र की नहीं चरित्र की पूजा पर बल देता है। मूर्तिपूजा के विरोध को समझने के लिए आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती के जीवनचरित और उनकी रचनाओं का स्वाध्याय जरूरी है। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, गौकरुणानिधि, व्यवहारभानु आदि उत्कृष्ट ग्रन्थों की रचना की। सत्यार्थ प्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के स्वाध्याय से मूर्तिपूजा वैदिक है अथवा अवैदिक, का निर्णय किया जा सकता है।

दयानंद सरस्वती ने हिंदू धर्म में मूर्ति पूजा का विरोध क्यों किया? इसपर विचार करेंगे।

क्या ईश्वर की मूर्ति संभव है

सबसे पहले तो यह समझना है कि हम जिसकी मूर्ति बनाकर रहे हैं क्या उसकी मूर्ति बनाना संभव है। जब परमात्मा निराकार है सर्वव्यापक है सर्वशक्तिमान है ऐसा हम मानते हैं तो फिर उसकी मूर्ति बनाना कैसे संभव होगा।

कई लोग कहते हैं कि ईश्वर को ध्यान में लाने के लिए मूर्ति बनाना और उसकी पूजा करना सरल है। मूर्ति बनाकर ईश्वर का ध्यान करना कैसे सरल है? जब भगवान की बनाई हुई संसार में अनगिनत मूर्तियां उपलब्ध है तो भगवान की मूर्ति से बेहतरीन मूर्ति कोई इंसान कैसे बना सकता है। हम यदि एक पेड़ पर या अपने शरीर की रचना या पर्वत पर ध्यान दें यह सभी जो ईश्वर की बनाई हुई मूर्तियां है उस पर विचार करके भी ईश्वर का ध्यान बेहतर तरीके से किया जा सकता है लेकिन ईश्वर की बनाई मूर्तियों को छोड़कर मनुष्य ईश्वर की ही मूर्ति बनाने लगे तो क्या यह संभव है कि वह मूर्ति ईश्वर की मूर्ति से अच्छी होगी?

सबसे बड़े मूर्तिकार की मूर्ति या उपहास

यह तो ईश्वर का उपहास करने जैसा है जब हम ईश्वर के जैसा एक चीज नहीं बना सकते हैं तो फिर उसी ईश्वर की मूर्ति हम कैसे बना लेंगे? यह तो अत्यंत ईश्वर के तिरस्कार की बात है कि ईश्वर की बनाई हुई मूर्तियों का ध्यान न करें उल्टे हम ईश्वर की ही मूर्ति बनाने लगे जिसकी मूर्ति बन ही नहीं सकती।

मैंने आज तक हमेशा मंदिर में ईश्वर का चिंतन ध्यान करते समय आंख बंद करते हुए इंसान को पाया। मूर्ति का उस समय कोई महत्व नहीं रह जाता। यदि मूर्ति ध्यान में साधक होता है तो व्यक्ति आंखें क्यों बंद कर लेता है? इसका उत्तर कोई भी पोंगा पंडित नहीं दे सकता। सत्य तो यह है कि ध्यान जितना ही गहरा होगा उस समय मूर्ति का विस्मरण हो जाता है मन से। निष्कर्ष निकला कि ध्यान के लिए मूर्ति की आवश्यकता नहीं है। इस बात को समझना मन के स्वभाव को समझने से और भी सरल हो जाएगा।

मन का स्वभाव और मूर्तिपूजा

मन का स्वभाव है कि उसका ध्यान कभी भी किसी साकार वस्तु में लग ही नहीं सकता। किसी भी साकार वस्तु पर ध्यान करते ही मन तीव्रगति से उस आकार का परिभ्रमण करके किसी अन्य साकार वस्तु पर चल जाता है। अभिप्राय यह है कि साकार वस्तु में ध्यान लग ही नहीं सकता। उसका मन साकार वस्तु से भटकता रहता है। एक साकार वस्तु से ध्यान हटकर फिर दूसरे साकार वस्तु में चला जाता है। यही कारण है कि किसी निराकार वस्तु जैसे असीम अंतरिक्ष इत्यादि का ध्यान करने पर मन उसका परिभ्रमण नहीं कर पाने पर थककर स्थिर हो जाता है।

साकार का सहारा

कई लोग जिद कर सकते हैं कि बिना साकार के ध्यान नहीं लगता। मान भी ले कि साकार के बिना ध्यान नहीं लगता जैसे कि त्राटक क्रिया के लिए साधक किसी साकार वस्तु या बिंदु पर ध्यान करते हैं तो विचारणीय है कि वह किसी देवी देवता की मूर्तिपूजा की तरह नहीं है। मान लिया कि शुरू में अभ्यास के लिए मन को स्थिर करने के लिए किसी साकार वस्तु मूर्ति का भी ध्यान कर सकते है लेकिन विचारणीय कि मनुष्य द्वारा बनाई गई साकार वस्तु की क्या आवश्यकता है जब परमात्मा की बनाई हुई उससे भी बेहतरीन निशुल्क साकार वस्तु उपलब्ध है। स्पष्ट है की मूर्ति बनाने के पीछे ध्यान करना कराना उद्देश्य नहीं है बल्कि पाखंड बढ़ाना है। यही कारण है की मूर्ति पूजा में पाखंड के रूप में प्राण प्रतिष्ठा जैसे कर्मकांड का आयोजन किया जाता है। कई मूर्ति तो ऐसे आकृति या रंग के होते हैं कि देखकर ही अजीब लगता है।

प्राण प्रतिष्ठा ईश्वर के साथ छल

प्राण प्रतिष्ठा के द्वारा एक आडंबर रचा जाता है मानो उस मूर्ति में कुछ विशेष गुण आ गया। जब इस तरह मन को सम्मोहित कर दिया जाता है तो व्यक्ति उस मूर्ति के प्रति सम्मोहित होकर यह मान लेता है कि इस मूर्ति में भगवान आ गया। सत्य तो यह है कि ईश्वर सर्वव्यापक है तो उसके मूर्ति में आने और जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। मन की कमजोरी को समझते हुए पाखंडियों के द्वारा मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा को रचा गया है। अवश्य ही परमात्मा के साथ इतना बड़ा पाखंड करने वाले को अगले जन्म में पशु आदि योनि मिलता होगा।

ऊपर के विश्लेषण से स्पष्ट है की मन की जैसी प्रकृति है उसके अनुसार मूर्ति पूजा करना व्यर्थ है और यह पूरी तरह पाखंड को बढ़ावा देने वाला है। स्पष्ट है की मूर्तियों के द्वारा ईश्वर को ध्यान में लाने की बात पूरी तरह झूठी है और मक्कारी से भरी हुई है। मूर्ति पूजा से आज तक कुछ नहीं हुआ सिवाय पाखंड को बढ़ाने के।

मूर्ति पूजा से तो अनगिनत दोष है लेकिन कुछ-कुछ प्रमुख दोषों का उल्लेख करना जरूरी है।

पहले तो मूर्ति बनाओ फिर उसकी रक्षा करने के लिए अतिरिक्त व्यय करो फिर उसको प्रतिदिन स्नान कराने भोजन कराने का पाखण्ड करो। यह पाखंड इसलिए है क्योंकि कोई भी निर्जीव वस्तु भोजन कर ही नहीं सकता लेकिन हम वह ढोंग करें कि ईश्वर भोजन कर रहा है।

जब मन पर एक बार इस तरह के ढोंगी संस्कार बन जाता है तो फिर उसके बाद इंसान किसी भी प्रकार के ढोंग का समर्थन करने लगता है यही कारण है कि हिंदुओं के द्वारा यह देखा गया है कि वह मजारों पर जाकर भी चादर चढ़ाते हैं।

भला जब हिंदुओं के पत्थर के भगवान हो सकते हैं तो उसी पत्थर से बना हुआ मजार भी पूजनीय क्यों न हो। हिंदुओं का ढोंग देखो की उसी पत्थर का मजार बनाया तो कई हिंदू मजार से घृणा करता है। हम ऐसा क्यों ना माने कि जब तुम्हारे पत्थर में प्राण प्रतिष्ठा हो सकती है तो मजार के पत्थर में भी प्राण प्रतिष्ठा हो सकती है। दोनों पत्थर ईश्वर की देन है।

मूर्ति पूजा के खण्डन के कारण आर्यसमाजियों के प्रति घृणा सामान्य है। इस बारे में आर्यसमाजी क्या सोचते हैं उसे पर थोड़ा सा लिखते हैं-

संसार में अनादि काल से सत्य और असत्य के अनुसार आचरण करने वाले होते रहे हैं और उसे उनके कर्मों के अनुसार उन्हें सदैव फल मिलता रहा है और मिलता रहेगा। आर्य समाज का कार्य है सत्य मार्ग दिखाना और पोंगा पंडितों व धूर्त लोगों का काम रहा है लोगों को भटकाना ताकि आंख के अंधे गांठ के पूरे लोगों को लूटा जा सके। बौद्धमत के पूर्व के किसी वैदिक साहित्य में मूर्ति पूजा के विधि विधान को दिखा दो तो मान ले की आर्य समाज गलत है। आर्य समाज अंधभक्ति करने के लिए नहीं कहता है बल्कि उसके लिए वह शास्त्रोक्त प्रमाण भी देता है।

ऐसा नहीं है कि कोई जन्म से ही आर्य समाजी होता है। अक्सर जो जन्म से आर्यसमाजी होते हैं उनमें भी मैंने पाखंड देखा है। मुख्य बात है कि जिसने विचार किया सत्य को समझा उसने आर्य समाज के मत को ग्रहण किया है। आर्य समाज किसी को तलवार के जोर पर अपना मत ग्रहण करने के लिए दबाव नहीं डालता।

आर्यसमाज के विद्वानों का मत है कि मूर्ति को भगवान मानने की परंपरा सबसे पहले बौधों ने शुरू की। उन्होंने भगवान बुद्ध और महावीर की बड़ी छोटी मूर्ति बनाई। बौद्ध जैन मत में लोगों के बढ़ने प्रभाव से बचाव के लिए उसी की नकल करके हिंदुओ ने भारत के मर्यादा पुरुषोत्तम राम और कृष्ण की मूर्तियों को भी भगवान बनाकर मंदिर में स्थापित किया गया नहीं तो उसके पहले के किसी भी ग्रंथ में मूर्ति पूजा का उल्लेख नहीं मिलता है। महाभारत जितने विशाल ग्रंथ के भीतर भी मूर्ति पूजा का कहीं उल्लेख नहीं है और जो एकलव्य द्वारा द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर पूजा करने की बात आती है तो वहां भी एकलव्य को किसी देवता की तरह पूजा करने की बात नहीं आती है कोई विधि विधान प्राण प्रतिष्ठा का उल्लेख नहीं मिलता है। उसके बारे में भी अलग व्याख्या उपलब्ध है ऐसे भी महाभारत में बहुत सारे मिलावटी श्लोक है या सर्वविदित है।

भारत के पतन का मूल कारण

भारत के पतन और मूर्ति पूजा में सीधा संबंध है। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि मूर्तिपूजा के उदय के पश्चात भारत का पतन भी उत्तरोत्तर होते गया। ऐसा माना जाता है कि कुषाण वंश के शासको ने सबसे पहले भगवान बुद्ध की मूर्ति बनाई। ऐसे मैं इस बारे में निश्चित रूप से नहीं जानता लेकिन इतना निश्चित है की मूर्ति पूजा के आरंभ के बाद भारत में विदेशी आक्रमणों को नष्ट करने का नैतिक और सैद्धांतिक आधार खत्म हो गया। लोग आक्रमण का जवाब देने के लिए किसी अवतार या मूर्ति पर निर्भर हो गए। ऐसे भी यह सर्वविदित है कि बौद्ध धर्म की अव्यावहारिक अहिंसा ने यहां के क्षात्रबल को निस्तेज कर दिया। जब क्षत्रिय राजा गौतम बुद्ध ने क्षात्रधर्म का त्याग कर नास्तिक मत खड़ा कर दिया तो धीरे-धीरे सभी मित्र राजा भी उनके सहयोगी हुए। बिम्बिसार बुद्ध के मित्र थे। राजश्रय में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार हुआ। यदि बुद्ध एक राजपुत्र नहीं होते तो उनके मत का प्रचार उतना ज्यादा संभवतः नहीं होता।

हिन्दू बौधों को मूर्ति की शक्तियों पर विश्वास

बौधों के मूर्तिपूजा का अंत इस्लाम के आक्रमण के साथ ही हुआ। पाकिस्तान अफगानिस्तान ईरान और अन्य कई देशों में जहां बौद्ध धर्म फैला हुआ था वह अपने नैतिक और सैद्धांतिक कमजोरियों की वजह से इस्लाम के आक्रमण को झेल ना सका और वह सारे क्षेत्र इस्लामी मुल्क बन गए।

इस्लाम और मूर्तिपूजा

क्योंकि हिंदुओं ने भी बौद्ध मत के मूर्तिपूजा को अपना लिया अतः वे भी इस्लाम के आक्रमण का प्रतिकार करने में असफल रहे हैं। मूर्ति पूजा के कारण कई सारे हिंदू इस्लाम में कन्वर्ट हुए हैं। मन्नत वाद और भाग्यवाद का सीधा कनेक्शन मूर्ति पूजा से जुड़ा हुआ है मूर्ति पूजा करते-करते हिंदू मजारों पर भी पूजा करना शुरू कर देता है। मजारों पर चादर चढ़ाना यह मूर्ति पूजा का ही फल है।

मूर्तिपूजा के कारण लवजिहाद

हिंदुओं की मूर्ति पूजा और मुसलमानो के पूजा में कोई खास अंतर नहीं है इसी कारण हिंदू लड़कियां आसानी से मुसलमान के मत में शामिल हो जाती है। उदाहरण के लिए

  • हिंदुओं के लिए जिस तरह गंगाजल पवित्र है उसी तरह मुसलमान के लिए जमजम का पानी पवित्र है। हिंदू जब तीर्थ से लौटता है तो गंगाजल बोतल में भरकर लाता है और मुसलमान हज से लौटने पर जमजम के पानी को बोतल में भरकर लाता है।
  • दूसरी समानता यह है कि हिंदू मंदिर में मूर्ति की परिक्रमा करता है और मुसलमान जब हज जाता है तो वह काबे की परिक्रमा करता है।
  • तीसरी बात, हिंदू तीर्थ पर मुंडन संस्कार करता है ठीक उसी तरह हज में भी मुसलमान अपने सर को मुड़ाते हैं।
  • चौथी समानता यह है कि जिस तरह मुसलमान जन्नत और जहन्नुम में यकीन रखता है ठीक उसी तरह हिंदू भी बैकुंठ धाम और नरक की कल्पना करता है। मुसलमान के अनुसार जहन्नुम में अल्लाह पकोड़े की तरह काफीर को तलेगा ठीक इसी तरह पुराण में भी इसका पूरा वर्णन है कि किस प्रकार नरक में जाने पर शरीर को अलग-अलग तरीके से प्रताड़ित किया जाएगा। तो कहने का अभिप्राय यह है कि मूर्तिपूजा से ही हिन्दू मुस्लिम की सारी चीज आपस में जुड़ी हुई है। दोनों ही पूरी तरह अंधविश्वासी है इसमें कोई शक नहीं है लेकिन एक दूसरे की निंदा दोनों ही करते हैं क्योंकि दोनों ने अपने-अपने अलग-अलग पाखंड बना रखें हैं।
  • मुसलमान भी साकार अल्लाह की पूजा करते हैं और हिंदू भी साकार देवता की पूजा करते हैं। यह कहने मात्र के लिए है कि मुसलमान साकार अल्लाह की पूजा नहीं करते हैं जबकि कुरान में स्पष्ट लिखा है कि अल्लाह सिंहासन पर बैठता है और वह आसमान से उतरता भी है स्पष्ट है कि अल्लाह शरीरधारी है।

ना मूर्ति पूजा होगी ना इतने अलग-अलग तरह के पाखंड होंगे। आज दुनिया में जितने भी मत पंथ संप्रदाय है उन सब के पीछे मूर्तिपूजा के ही अलग-अलग विभिन्न रूप है और इनमें विभिनता के कारण ही अलग-अलग मत मतांतर है और आपस में कलह है।

© अजीत कुमार, सर्वाधिकार सुरक्षित।

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