आत्मा और परमात्मा में कौन ज्यादा महत्वपूर्ण है? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए आत्मा और परमात्मा दोनों के बारे में पूरी तरह ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि किसी भी दो पदार्थ के बीच में तुलनात्मक अध्ययन तभी संभव है जब दोनों पदार्थों के गुण कर्म स्वभाव के बारे में विचारक को प्रत्यक्षीकरण हो, दर्शन हो। इसके बिना दो पदार्थों के बीच में तुलना करना संभव नहीं है।
किसी मनुष्य के लिए परमात्मा को समझना साधारण कार्य नहीं है। प्रत्येक मनुष्य अपने होने के अस्तित्व को महसूस करता है और अपने अस्तित्व से इंकार नहीं कर सकता। यदि कोई व्यक्ति यह कहें कि मैं नहीं हूं तब भी उससे उसके अस्तित्व की पुष्टि होती है। इस विचार को ध्यान में रखते हुए आत्मा और परमात्मा के बीच में तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रथम चरण या सोपान आत्म अध्ययन या स्वाध्याय है। जब मनुष्य अपने आत्मा को अच्छी तरह जान जाता है तब वह परमात्मा के बारे में भी जानने की चेष्टा कर सकता है।
आत्मा को अच्छी तरह जानने का अर्थ क्या है? आत्मा को अच्छी तरह जानने का अर्थ यह है की आत्मा के गुण कर्म और स्वभाव को पूरी तरह विश्लेषित और संश्लेषित किया जा सके। मनुष्य की आत्मा में सत्य को जानने की स्वभाविक क्षमता है। जब व्यक्ति आत्मा के अनुकूल आचरण करता है तब उसे सत्य का दर्शन होता है।
जब मनुष्य अपनी आत्मा को जान जाता है तो उसे अपने अस्तित्व के होने के प्रति शंका नहीं होती परंतु अपने होने के उद्देश्य के प्रति कारण भाव पैदा होता है। फिर मनुष्य परमात्मा के सत्ता को भी समझ पाता है।
दूसरे शब्दों में जब तक मनुष्य अपने बारे में नहीं जानता है तब तक उसके लिए आत्मा ही महत्वपूर्ण होती है परंतु जब वह अपने आत्मा को जान जाता है तो उसके लिए परमात्मा महत्वपूर्ण हो जाता है।
अतः ज्ञान के किस चरण में मनुष्य स्थित है, उसी के अनुसार आत्मा और परमात्मा का महत्व निर्धारित होता है। ज्ञान के पूर्व चरण में आत्मा महत्वपूर्ण है परंतु जब मनुष्य आत्मा को अच्छी तरह जान जाता है तब उसके लिए परमात्मा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है और व्यक्ति जीवन के दुखों से मुक्ति व मोक्ष के लिए परमात्मा की उपासना करता है।
मंदिरों और दरगाहों पर जाकर मन्नत मांगनेवाले पढ़े लिखे करोड़ों लोग क्या ये साबित नहीं करते कि शिक्षा के बावजूद, देश अभी भी अंध विश्वास की कुरीति में जकड़ा हुआ है ?
© अजीत कुमार, सर्वाधिकार सुरक्षित।
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