बुधवार, 2 अक्टूबर 2024

अंतःकरण से क्या अभिप्राय है?

आत्मपरिचय के संदर्भ में सूक्ष्म शरीर या सूक्ष्म लिंग एवं अन्तःकरण उपयोगी प्रत्यय हैं। अन्तःकरण दो शब्दों के मेल से बना है। अंतः और करण। अंतः अर्थात अंदर और करण से अभिप्राय साधन से है। उदाहरण के लिए कलम से हम लिखते हैं तो कलम लिखने का साधन हुआ। चाकू से फल काटते हैं तो चाकू एक साधन हुआ। फल काटना एक क्रिया है और इस क्रिया को करने के लिए कर्ता को जिस साधन की आवश्यकता पड़ती है उस साधन को ही करण कहते हैं। अतः फल काटने की क्रिया में चाकू एक साधन है।

इसी प्रकार जीवात्मा कर्मों का कर्त्ता है परंतु कार्य को करने के लिए उसे अनेक तरह के साधनों की आवश्यकता पड़ती है। अब यह साधन दो प्रकार के होते हैं— अंतः करण और वाह्य करण। अन्तःकरण ऐसे साधन हैं जो दिखाई नहीं देते हैं केवल उनका अनुमान किया जाता है। इसके विपरीत वाह्य करण के अंतर्गत पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियाँ आती हैं।
अंतःकरण को अंतःकरण चतुष्टय भी कहते हैं। अंतःकरण चतुष्टय से अभिप्राय चार तत्त्वों- मन अहंकार बुद्धि और चित से है। इन चारों को समझकर अंतःकरण को समझ सकते हैं।
अन्तःकरण के अंतर्गत चार साधनों का शास्त्र में उल्लेख है बुद्धि, अहंकार, चित्त और मन। बुद्धि किसी विषय के निर्णय में साधन का कार्य करता है। मन इच्छाओं के संकल्प विकल्प का नाम है। जब वाह्य इंद्रियों पर विषय संघात होता है तो उस विषय के प्रति संकल्प विकल्प पैदा होता है। उस विषय को भोगने या न भोगने की इच्छा का नाम ही संकल्प विकल्प है। बुद्धि/महत्तत्व भी मूल प्रकृति से उत्पन्न होती है और इसे एक कम्प्यूटर के प्रोसेसर की तरह माना जा सकता है। लेकिन कंट्रोल यूनिट तो आत्मा ही है। आत्मा में इच्छा, भाव और क्रिया का गुण है। जब आत्मा अपने बुद्धि को नियंत्रित रखकर क्रिया करती है तो उसे सुबुद्धि या विवेक कहते हैं। विवेक क्रियात्मक आत्मा के बुद्धि के ऊपर सुशासन का नाम है।
मूल प्रकृति त्रिगुणात्मक है। इसका अर्थ यह है कि प्रकृति में सत, रज और तम गुण हैं। प्रकृति के मिलने से ही बुद्धि, अहंकार, मन और चित्त का निर्माण होता है। त्रिगुणात्मक मूल प्रकृति से ही महत्तत्व या बुद्धि बनती है। बुद्धि से अहंकार, अहंकार से चित्त और चित्त से मन बनते हैं। इस बात को हम ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे दूध से दही, दही से मक्खन, घृत आदि बनते हैं उसी तरह त्रिगुणात्मक मूल प्रकृति से बुद्धि, अहंकार आदि बनते हैं। जिस प्रकार आँखों के होंने से रूप का बोध होता है वैसे ही अहंकार भी एक साधन होता है जिसके होने से जीवात्मा को अपने होने का बोध होता है। अहंकार के कारण ही जीवात्मा बाह्यभिमुख बना रहता है और अपने आप को शरीर या मन समझता है और अपने स्वयं स्वरूप को भुलाये रहता है। बुद्धि भी एक साधन है जिसकी सहायता से आत्मा किसी विषय संघात के प्रति निर्णय लेती है। इत्यादि।

मनुष्य का आत्मा सत्य व असत्य को जानने वाला है परन्तु जब अंतःकरण अशुद्ध होता है तब उसे सत्य बोध नहीं होता। अंतःकरण की शुद्धि के बिना आत्मिक उन्नति सम्भव नहीं है। मनुस्मृति के अनुसार, स्नान आदि से स्थूल शरीर की शुद्धि होती है, सङ्कल्प विकल्प युक्त मन सत्य से शुद्ध होता है। सूक्ष्म भूतात्मा विद्या और तप से पवित्र होता है और बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है। इस तरह अन्तःकरण की शुद्धि पर बल दिया गया है।


मन और चित्त को बहुधा हम एक ही अर्थ में प्रयोग करते हैं परंतु इन दोनो में सूक्ष्म अंतर है। जिस प्रकार तालाब में पत्थर फेंकने पर उसमें तरंगे उत्पन्न होती हैं उसी तरह चित्त पर जब किसी विषय या उद्दीपक stimulus का प्रभाव पड़ता है तो चित्त से वृतियां पैदा होती हैं। इन्ही उत्पन्न वृत्तियों (संकल्प विकल्प) को मन कहते हैं। उदाहरण के लिए जब भोजन को आंख से देखते हैं तब जीभ में लार बनना व भोजन की इच्छा। मित्र को देखकर खुशी और शत्रु को देखकर क्रोध इत्यादि। मन को अंग्रेजी में mind कहते हैं जबकि चित्त को mind-stuff कहते हैं। वृतियां waves हैं। वृत्तियों के बनने से रोकने की प्रक्रिया को योग कहते हैं। पतञ्जलि योगशास्त्र में लिखा हुआ है– योग चित्त वृत्ति निरोधः। इसका अर्थ है कि चित्त में बनने वाली वृत्तियों को रोक देना ही योग की स्थिति है।
सार यह है कि अहंकार के कारण अस्तित्व के प्रति भाव बना रहता है तो मन में इच्छाओं के प्रति सङ्कल्प और विकल्प पैदा होता रहता है जबकि चित्त में उनके संस्कार संचित होते हैं। बुद्धि का कार्य संकल्प विकल्प के प्रति निर्णय देना है। इस तरह इन चारों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अब इन अन्तःकरण चतुष्टय की शुद्धि होने पर आत्मा सत्य निर्णय कर पाती है अन्यथा भरम, विभर्म, मोह, शोक इत्यादि से युक्त हो कर विषयभोग करती रहती है।
अन्तःकरण की शुद्धि के लिए पतञ्जलि मुनि प्रणीत योगदर्शन ही अनुकरणीय है। जीवात्मा की मुक्ति के लिए परमात्मा ने ये पँच ज्ञानेन्द्रिय, पँच कर्मेन्द्रिय, अन्तःकरण आदि साधन बनाये हैं।

© अजीत कुमार, सर्वाधिकार सुरक्षित।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें