वेदो अखिलो धर्म मूलं। सुख का मूल धर्म है।
धर्म का मूल वेद है। वेद का मूल परमात्मा है।
किसी भी प्राणधारी की गतिविधियों का मूल कारण सुख की इच्छा होती है। यह एक स्वयमसिद्ध तथ्य है। हम सभी सुख की आकांक्षा से ही किसी कार्य के लिए प्रेरित होते हैं। लेकिन सभी को हमेशा सुख नहीं मिलता। सुख के लिए सदाचार की आवश्यकता है, धर्म की जरूरत होती है। धर्म वह है जिनको धारण करने से अर्थ, काम और मोक्ष मिलता है।
मनुस्मृति के अनुसार धर्म के दस लक्षण हैं जिनको धारण कर कोई धार्मिक कहलाता है—
धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रयनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।
धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, और अक्रोध ये दस लक्षण हैं। इन दस लक्षणों की व्याख्या करना शास्त्र रचना के समान है। एक एक लक्षण के व्यापक अर्थ हैं। उदाहरण के लिए, शौच के अंतर्गत अंतः शौच और बाह्य शौच शरीर और मन की शुद्धि से जुड़े हैं जो जीवात्मा की मुक्ति में साधक हैं।
स्पष्ट है कि धर्म कोई हिन्दू, मुस्लिम समुदाय से जुड़े होने से नहीं है। जो भी धर्म को धारण करेगा, सुख का अधिकारी होगा।
अब यह समझना जरूरी है कि वेद को ही धर्म का मूल क्यों कहा गया है। वेद का अर्थ ज्ञान है। दयालु परमात्मा सभी जीवों को जन्म के साथ ही कुछ ज्ञान दे देता है जिसे सहज ज्ञान कहते हैं। यह सहज ज्ञान सभी जीवों को उसके योनि के अनुसार मिलता है। उदाहरण के लिए गाय, बैल, बकरी, चिड़िया, मुर्गी इत्यादि को अपने खाद्य अखाद्य का जन्म से ही बोध होता है।
दूसरे तरह का ज्ञान आर्ष ज्ञान है जो केवल मनुष्य योनि में ही मिलता है। आर्ष ज्ञान से अभिप्राय ऋषियों के आत्मा में प्रकाशित ज्ञान से है जिसे गुरू शिष्य परम्परा से सृष्टि के बाद से सभी प्राप्त करते हैं। यह आर्ष ज्ञान ही विज्ञान और विशेष सुख का कारण है। उदाहरण के लिए वर्तमान वैज्ञानिक युग के आविष्कारों से संसार को सुख और कल्याण हुआ है परन्तु कोई भी वैज्ञानिक बिना गणित आदि आर्ष विद्या को शिक्षको के बिना स्वतः नहीं सीख जाता। इस आर्ष विद्या का आदिस्रोत परमात्मा है। यह आर्ष विद्या ही वेद है।
विज्ञान का बीजरूप गणित, तर्क, चिकित्सा आदि सभी ज्ञान वेद में है। बिना गणित के कम्प्यूटर विज्ञान हो या कोई अन्य, आधुनिक युग मे सम्भव ही नहीं था। यह मान्य बात है कि शून्य का आविष्कार भारत में हुआ। सत्य यह है कि यह सभी तथ्य वेद में पहले से विद्यमान हैं परन्तु विद्या का बीजरूप वेद में है। अब पुरुषार्थ कर उस बीज से वृक्ष बनाने का कर्म मनुष्य के हाथ है।
जैसा कि लिखा कि आर्षज्ञान केवल मनुष्य को ही परमात्मा ने दिया है। अब कोई कहे कि इसमें ईश्वर पक्षपात क्यों करता है केवल मनुष्यों को यह आर्ष ज्ञान क्यों देता है? तो इसका उत्तर यह है कि परमात्मा प्रत्येक जीव को योनि उसके पूर्वसंचित कर्म के अनुसार निश्चित करता है न कि पक्षपात तरीके से मनमर्जी से किसी जीव को कोई योनि देता है। आर्ष ज्ञान भी प्रत्येक मनुष्य के कर्म पर ही निर्भर है। जो जितना अधिक पुरुषार्थ करता है उसको उतना ही अधिक आर्ष ज्ञान भी होता है। अतः परमात्मा का कोई कार्य पक्षपातपूर्ण नहीं है।
वेद के एक मंत्र में आर्षज्ञान के सम्बंध में एक आलंकारिक वर्णन है जो कुछ इस प्रकार है—
जिस प्रकार स्त्री अपने रूप सौंदर्य का अनावरण केवल अपने पति के सामने करती है, उसी तरह वेदविद्या ज्ञान का प्रकाश परमात्मा धार्मिक जनों को करता है।
सृष्टि के आदि से अबतक सभी मनुष्य यह आर्ष विद्या गुरू शिष्य परम्परा से ही प्राप्त करते है। आदि गुरू परमात्मा है।
सर्वप्रथम यह आर्ष ज्ञान पुण्यात्मा ऋषियों को परमात्मा ने उनके आत्मा में प्रकाशित किया। वेद को परमात्मा से प्रकाशित मानने के कारण वेद का मूल परमात्मा को माना जाता है। इस तरह परमात्मा की कृपा सदैव सभी जीवधारियों पर है। अतः सुख का मूल धर्म है और धर्म का मूल वेद, और वेद का मूल ईश्वर है।
© अजीत कुमार, सर्वाधिकार सुरक्षित।
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