भारतीय दर्शन शास्त्र के अनुसार ज्ञान को अनेक रूपों में समझा जाता है। ज्ञान के चार प्रकार इस प्रकार हैं-
- मिथ्याज्ञान
- संशयात्मक ज्ञान
- शब्द ज्ञान और
- तत्वज्ञान
मिथ्याज्ञान
मिथ्याज्ञान से अभिप्राय सत्यज्ञान के विपरीत ज्ञान से है। असत्य ज्ञान को मिथ्याज्ञान कहा जाता है। उदाहरण के लिए— आग गर्म होता है लेकिन अगर कोई यह कहता है कि आग ठंडा होता है तो इसे मिथ्या ज्ञान समझा जाएगा। मिथ्याज्ञान के कारण मनुष्य अनेकानेक पाप कर्म करता है। मिथ्या ज्ञान के कारण ही व्यक्ति अपने आप को शरीर या मन मानता रहता है और अपने वास्तविक स्वरूप को समझ नहीं पाता। मिथ्या ज्ञान के कारण ही अहंकार व अन्य दोष से महान पाप कर्म जीव करता है।
संशयात्मक ज्ञान
संशयात्मक ज्ञान से अभिप्राय ऐसे ज्ञान से है जिसमें व्यक्ति को दुविधा बनी रहती है कि तथ्य सत्य है अथवा नहीं। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति यदि यह कहता है कि भगवान हो भी सकता है अथवा नहीं भी हो सकता है तो उस व्यक्ति का भगवान के प्रति जो ज्ञान है उसे संशय ज्ञान ही समझा जाएगा। संशयात्मक ज्ञान के कारण भी मनुष्य दोषों से मुक्त नहीं हो पाता।
शब्दज्ञान
शब्द ज्ञान का अभिप्राय ऐसे ज्ञान से है जो शब्द अर्थात ग्रंथों से अथवा किसी आप्त विद्वान व्यक्ति से प्राप्त होता है। अपने जीवन में हम सभी पुस्तकों, माता, पिता, गुरुजनों आदि से ज्ञान ग्रहण करते हैं। ऐसे ज्ञान शब्द ज्ञान की कोटि के हो सकते हैं। शब्द ज्ञान के बावजूद व्यक्ति का आचरण उस ज्ञान के विपरीत हो सकता है। उदाहरण के लिए पेट के रोगी को यह मालूम है कि मिर्च मसालों से बना हुआ भोजन उसके स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह है इसके बावजूद यदि व्यक्ति ऐसा भोजन करता है तो यह कहा जाएगा कि व्यक्ति को शब्द ज्ञान तो है परन्तु तत्त्वज्ञान नहीं है। चौथा और अंतिम ज्ञान तत्वज्ञान है।
तत्त्वज्ञान
तत्वज्ञान सबसे उच्च कोटि के ज्ञान है। इस तरह का ज्ञान होने के बाद व्यक्ति जो सोचता है, वही वह कहता है और जो कहता है, वही वह करता भी है। यथा ज्ञान, तथा कर्म। मनसा, वचसा, कर्मणा साम्य की अवस्था तत्त्वज्ञान का फल है।
उदाहरण के लिए अगर किसी व्यक्ति को यह कहा जाए की आग में हाथ डालो तो वह आग में हाथ नहीं डालेगा क्योंकि उसे यह मालूम है की आग में हाथ डालने पर हाथ जल जाएगा और वह अपने आचरण में भी इस ज्ञान का पालन करता है। ऐसा ज्ञान तत्वज्ञान की श्रेणी में आएगा। जब व्यक्ति जीवन के अधिकाधिक क्षेत्रों में तत्त्वज्ञानी बन जाता है तब वह मोक्ष को प्राप्त करता है। मुमुक्षु जनों का उद्देश्य तत्त्वज्ञानी बनना होता है।
ज्ञान के स्तर
तत्वज्ञान श्रेष्ठतम ज्ञान है और सबसे निम्न स्तर का ज्ञान मिथ्याज्ञान है जिसमें व्यक्ति को सत्य का ज्ञान ही नहीं होता। वह असत्य के साथ जीवन जीता है। पापी, दुराचारी, राक्षस, नीच लोगों के ज्ञान में मिथ्याज्ञान का आधिक्य होता है तत्त्वज्ञान न्यूनतम होता है। उससे बेहतर स्थिति संशयात्मक ज्ञान की होती है लेकिन इससे व्यक्ति का बहुत कल्याण नहीं होता। तीसरे कोटि के ज्ञान अर्थात शब्द ज्ञान में व्यक्ति को सत्य और असत्य का ज्ञान तो होता है परंतु जब तक व्यक्ति उसे आचरण में नहीं लाएगा तब तक उसका पूर्ण कल्याण स्वभाव नहीं है उदाहरण के लिए शास्त्रों के अनुसार मांसाहार उचित नहीं है। इस सत्य को जानने के बावजूद लोग मांसाहार करते हैं। तत्त्वज्ञान के अभाव के कारण ही कई तथाकथित तत्त्वज्ञानी संन्यासी और स्वामी भी मांसाहार और पशुबलि करते आये हैं।
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