बनाने वाले का कोई बनाने वाला नहीं होता है जैसे गेहूं का गेंहू नहीं होता उसी तरह कर्त्ता का कर्त्ता नहीं होता। कर्त्ता स्वतन्त्रः।।
संसार में दो तरह की वस्तुएं विचारणीय है। पहली वस्तु वह है जो अपरिवर्तनशील है और दूसरी वस्तु वह है जो परिवर्तनशील है। जो अपरिवर्तनशील वस्तु है उसको नित्य कहते हैं और परिवर्तनशील वस्तु को अनित्य कहते हैं।
संसार परिवर्तनशील है, अतः यह एक तरह का कार्य हुआ और हर एक कार्य का कोई न कोई कारण होता है। लेकिन यह समझना चाहिए कि कारण का कोई कारण नहीं होता है, कार्य का कारण होता है, अन्यथा यह तर्क व्याकरण की दृष्टि से भी अशुद्ध होगा। जैसे कि बताया कि गेहूं का गेहूँ नहीं होता, उसी तरह कारण का कारण नहीं होता है। हाँ, कार्य का कारण होता है। अब संसार अगर एक कार्य है तो उसका कोई न कोई कारण होगा और उसी कारण को परमात्मा कहते हैं।
जिस वस्तु में बिल्कुल परिवर्तन नहीं होता वही नित्य है, वही आत्मा है, वहीं परमात्मा है, वही कर्त्ता है, वही चेतन है, वही चीजों को बनाने बिगाड़ने की क्षमता रखती है। उसमें चेतना और ज्ञान है क्योंकि बिना चेतना और ज्ञान के कोई कार्य सम्भव नहीं है अतः कार्य के कारण में चेतना और ज्ञान अवश्य होगा। जो कार्य करता है उसे ही कर्त्ता कहते हैं। जगत के कर्त्ता परमात्मा को इसलिए चेतन और ज्ञानयुक्त मानते हैं। वह जगत का निमित्त कारण है।
अब कोई यह ही कह सकता है कि मुझे तो संसार में सब चीज परिवर्तनशील ही दिखाई देता है फिर कोई नित्य कैसे हो सकता है? तो इसका सीधा सा उत्तर है कि अगर सब चीज परिवर्तनशील है तो जो सत्ता उस परिवर्तन का साक्षी है वह परिवर्तनशील नहीं हो सकता अन्यथा अगर वह भी परिवर्तनशील हो तो वह परिवर्तन को कभी भी अनुभव नहीं कर सकता है। कहने का अर्थ यह है कि जो परिवर्तन का साक्षी है वह अपरिवर्तनशील है, नित्य है।
जिस वस्तु में परिवर्तन होता है वह अनित्य है वह जड़ पदार्थ है, उसने चेतना नहीं है, उसने बनने बिगड़ने की क्षमता है।
पहले यह समझ लो कि बनाने वाले का कोई बनाने वाला नहीं होता। बनाने वाला को ही कर्त्ता कहते हैं। और दूसरी चीज होती है, जो बनती है। जो चीज बनती है वह बिगड़ने वाली होती है, उसमें विकार होता है, परिवर्तन होता है।
तो दो बातें हुई। बनाने वाला और बनने वाला। जगत के बनाने वाले को निमित्त कारण कहते हैं और बनने बिगड़ने वाली जगत के मूल प्रकृति को उपादान कारण कहते हैं। जिस जड़ पदार्थ से कोई बनाने वाला वस्तु बनावे, उस जड़ पदार्थ को उपादान कारण कहते हैं।
जो बनाने वाला है उसमें कभी विकार नहीं होता, उसमें परिवर्तन नहीं होता और जो बनती है वह चीज विकारी होती है अर्थात बिगड़ने वाली, परिवर्तनशील होती है। दार्शनिक दृष्टि से कर्त्ता के दो भेद है आत्मा और परमात्मा।
जो चीज बनती बिगड़ती है उसका भी एक मूल माना गया है। उसी मूल रूप में परिवर्तन से प्रकृति की सारी चीजें बनती हैं। वह मूल प्रकृति अनादि है अर्थात उसका कोई आरंभ या आदि नहीं है। मूल प्रकृति त्रिगुणात्मक है अर्थात उसमे तीन तरह के गुण हैं जिसे सत, रज और तम गुण कहते हैं। इत्यादि। शेष दार्शनिक व्याख्या है।
क्या इस जड़ जगत् का कारण ईश्वर है?
संसार बनने बिगड़ने वाली है अतः इसका कोई न कोई कर्त्ता अवश्य है। वही कर्त्ता परमात्मा है।
एक और उदाहरण:-
अभी इतना सोचो कि आपको किसने बनाया तो आप कहोगे कि मेरे माता पिता ने बनाया। मान लो कि कल आप मर जाते हो क्या आपके माता-पिता आपको फिर से बना देंगे? क्या उनमें यह क्षमता है? यह क्षमता उनमें नहीं है। अतः यह नहीं कह सकते हैं कि माता पिता ने आपको बनाया। अतः आपके शरीर को बनाने वाली शक्ति अदृश्य रूप में जगत में व्याप्त है जो मरता है, उसका शरीर मरता है वह व्यक्ति नहीं मरता है। आत्मा नहीं मरती है, जो चेतना है, अमर है। उसको कोई बनाने वाला नहीं है।
आत्मा को परमात्मा ने भी नहीं बनाया क्योंकि आत्मा कर्त्ता है। कर्त्ता का कर्त्ता सम्भव नहीं है। आत्मा के निवास शरीर का निर्माता परमात्मा है, आत्मा का नहीं। जगत का निर्माता परमात्मा है, जगत के मूल प्रकृति का नहीं। आत्मा, परमात्मा और मूल प्रकृति अनादि हैं।
यह समझ में आ जाए तो इसी तरह इस संसार को भी बनाने वाला है और बनाने वाले का कोई बनाने वाला नहीं होता है।
३१/८/२०२१
© अजीत कुमार, सर्वाधिकार सुरक्षित।
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