रविवार, 17 दिसंबर 2023

बौद्धमत के पतन के पश्चात बौधमूर्तियों का क्या हुआ

बौधमत, देवी वज्रयोगिनी की छवि

गतांक से आगे।

पिछले लेख में मैंने बताया था कि किस प्रकार भारत में बौद्ध और जैन मत के द्वारा मूर्ति पूजा का आरंभ किया गया और बुद्ध और महावीर की बड़ी-बड़ी विशालकाय मूर्तियों का निर्माण किया गया। उदाहरण के लिए आज भी पुरातात्विक खुदाई से उतनी संख्या में हिन्दुओ के राम और कृष्ण की मूर्ति नहीं मिलता है जितना बुद्ध की।

यह भी बताया था कि वैदिक धर्म में यज्ञ की प्रधानता थी उसका परित्याग कर बौधों की तरह भारत में सनातनियों ने मूर्ति पूजा का आरंभ किया। यह पूरी तरह एक नकल की परिपाटी थी। समाज का धार्मिक अगुवा स्वार्थी कर्मकांडी ब्राह्मण वर्ग बौद्धमत की नकल करने में नहीं हिचका।

प्रश्न उत्पन्न होता है कि भारत में जब बौद्धमत का पतन हो गया फिर भी उनके द्वारा स्थापित मूर्तिपूजा का प्रचलन क्यों नहीं नष्ट हुआ जबकि आदि शंकराचार्य ने स्वयं परापूजा ग्रन्थ में  मूर्तिपूजा का विरोध किया  उनके शिष्य क्यों मूर्तिपूजा करने लगें ?

इस लेख का मुख्य उद्देश्य यह प्रतिपादित करना है कि किस कारण से बौद्ध मत के भारत में पतन और विलुप्त होने के बावजूद बौधों के द्वारा प्रतिपादित और प्रचारित प्रसारित मूर्ति पूजा भारत में प्रचलित रह गया। बौधों ने अपने महापुरुषों की मूर्ति बनाकर पूजा प्रथा का प्रचलन क्यों किया इसके दर्शन को हम किसी अन्य लेख में समझेंगे।

यज्ञ और अग्निहोत्र का अर्थ

क्योंकि बौद्ध सभ्यता से पहले भारत में वैदिक सभ्यता थी जिसमें यज्ञ, अग्निहोत्र, योग और उपासना की प्रधानता थी। अग्निहोत्र से अभिप्राय हवन करने से है जिसमें सुगंधित स्वास्थ्यवर्धक औषधीय गुणों से युक्त पदार्थों को अग्नि में डालकर वायु की शुद्धि की जाती थी। वायु की शुद्धि होने से सागर के जल की भी शुद्ध हो जाती है। अर्थात जल थल और वायु इन तीनों की शुद्धि के लिए अग्निहोत्र का विधान है।  शरीर और मन की शुद्धि के लिए योग किया जाता था जो उपासना के लिए आधार तैयार करता था।

यज्ञ एक बहुत ही व्यापक शब्द है अग्निहोत्र की अपेक्षा। अग्निहोत्र से अभिप्राय हवन करने से है जबकि यज्ञ से अभिप्राय किसी भी उपकार करने वाले कार्य से है। उदाहरण के लिए अगर आप कोई भी उपकार का कार्य कर रहे हैं तो वह यज्ञ के अंतर्गत ही माना जाता है जैसे किसी को विद्या दान देना।

अग्निहोत्र से भी संसार का उपकार होता है तो अग्निहोत्र भी एक तरह का यज्ञ ही है।

बौद्ध जैन चार्वाक और अन्य नास्तिक मत के उदय के कारण

वैदिक काल के उत्तरार्ध में यज्ञ और अग्निहोत्र के संबंध में विकृति आने के कारण पशु बलि और अन्य प्रकार के कर्मकांड समाज में प्रचलित हो गए थे। कर्मकांड में पाखंड बढ़ने के फलस्वरुप ही समाज में नए-नए मत मतांतर उत्पन्न हुए। बौध और जैन मत उसी के एक परिणाम थे। ऐसा नहीं है कि उस समय केवल बौद्ध और जैन मत हुए अन्य भी कई नास्तिक संप्रदाय उत्पन्न हुए जैसे चारवाक, आभाणीक, आजीवक इत्यादि ।

पुनः बौद्ध मत पर एक दृष्टि डालते हैं।

भगवान बुद्ध ने अहिंसा का सिद्धांत दिया जो मूलतः उस समय प्रचलित सांख्य दर्शन और दूसरे अन्य दर्शन के सिद्धांत पर आधारित था। बुद्ध ने कोई नया मार्ग नहीं दिखलाया। वस्तुतः जो सत्य अहिंसा का मार्ग समाज में क्षीण हो गया था उसी को बुद्ध ने प्रचारित किया लेकिन वह भी बुद्ध के जीवन के उत्तरार्ध में और उनकी मृत्यु के पश्चात बिल्कुल पाखंड में परिवर्तित हो गया। उसमें कुछ दोष का भार बुद्ध पर भी जाता है जिसकी चर्चा किसी अन्य लेख में।

बौध मत में शाखा प्रशाखा

बुद्ध की मृत्यु के बाद कई प्रकार के विवाद शुरू हो गए। उन विवादों के मूल में देखा जाए तो बुद्ध द्वारा स्थापित संघ की बढ़ती हुई शक्तियों पर अधिकार की प्रवृत्ति और बुद्ध द्वारा कई विषयों पर मौन धारण करना था। मौन का कुछ भी अर्थ लगाया जा सकता है और बुद्ध के ही कई अनुयायियों ने बुद्ध के मौन का अर्थ मनमर्जी से लगायें।

उन विवादों को दूर करने के लिए चार बौद्ध संगीतियां हुई। लेकिन उसमें विचारों की एकता होने की बजाय अनेकता बढ़ती गई और बौधों के कई संप्रदाय हो गए जैसे हीनयान महायान इत्यादि। उनमें भी सौत्रान्तिक, वैभाषिक, माध्यमिक, योगाचार, वज्रयोगिनी इत्यादि मत हुए।

राजाश्रय और मिशनरी कार्य

स्मरणीय है कि बौधों को लंबे समय तक राजाश्रय प्राप्त था। उदाहरण के लिए हर्यक वंश के प्रथम शासक बिंबिसार भगवान बुद्ध के मित्र थे। बिंबिसार का पुत्र अजातशत्रु जिसने अपने पिता की हत्या की वह भी बुद्ध का ही अनुयाई था। इसके बाद उसका पुत्र उदियन हुआ उसने भी अपने पिता की हत्या की। वह भी बौद्धमार्गी ही था। आश्चर्यजनक तथ्य है कि हर्यक वंश के आगे भी जितने शासक हुए उन सब ने अपने-अपने पिता का वध किया जबकि वे सब बौद्ध मत को मानने वाले थे जो अहिंसा परमो धर्म कहता है। बौद्धमत का महान प्रचारक सम्राट अशोक के बारे में किवदंती है कि उसने अपने 99 भाईयों की हत्याएं की।

नकल के लिए अक्ल की कमी

बौधों के दीर्घकालीन प्रभाव के कारण जब सनातनियों ने भी बौध परंपरा को अपना लिया तो मूर्ति पूजा भी स्वाभाविक रूप से अपना लिया। जब तक बौध मत भारत में प्रधान रहा मूर्तिपूजा भी बना रहा। समाज में प्रचलित अच्छी बुरी परंपरा एकाएक नहीं उखड़ जाती है।

मूर्तिपूजा कुछ समय के लिए आदि शंकर के शास्त्रार्थ के पश्चात रोक दिया गया। लोगों ने मूर्तिपूजा त्याग कर यज्ञ अनुष्ठान हवन इत्यादि करना शुरू कर दिया। अग्निहोत्र के महत्व को समझकर प्रतिदिन अग्निहोत्र भी होने लगा। शास्त्रार्थ विजय के उपरांत आचार्य शङ्कर की प्रसिद्धि भारत वर्ष में फैल गई थी। मूर्तियों के प्रति समाज की निष्ठा क्षीण होने लगा। मूर्तियों को जमीन में दबा दिया गया अथवा जल में विसर्जित कर दिया गया।

आज जो मूर्तियां हमें जमीन के नीचे से निकलती हुई मिलती है वे सभी जैन बौद्ध काल की मूर्तियां है जो लगभग ढाई हजार 3000 वर्ष पुरानी है। मूर्ति पूजा का ज्यादा से ज्यादा पुराना इतिहास 5000 वर्ष पुराना है और जो उसे पुरानी मूर्तियां मिलती है वह भारत में नहीं विश्व की अन्यत्र देश में मिलती है क्योंकि वहां पर विद्या के अभाव के कारण मूर्ति पूजा का प्रचलन प्राचीन काल से रहा।

शाक्यवंशियों में रक्तशुद्धि और जातपात

ऐसा लगता है कि बौधों ने भी मूर्ति पूजा विदेशियों से ही ग्रहण किया। ऐसा भी माना जाता है कि भगवान बुद्ध के वंशज भारतीय ना होकर ईरानी थे। ऐसे यह पूरी तरह प्रामाणिक नहीं है। 

भगवान बुद्ध शाक्य वंश में पैदा हुए थे और ऐसा कतिपय विद्वानों द्वारा माना जाता है कि यह विदेशी शक की तरह ही विदेशी थे जिन्होंने भारतीय परंपरा को अपना लिया था।

इस बात का प्रमाण एक तथ्य के आधार पर ऐसे समझ सकते हैं कि ईरान के क्षेत्र में नजदीकी पारिवारिक संबंधों में विवाह करना जैसे भाई-बहन के बीच सामान्य था। क्योंकि वे अपने रक्त शुद्धता के सिद्धांत का अनुसरण करते थे, इस सिद्धांत के अनुसार चचेरे ममेरे फुफेरे भाई और बहन के बीच में शादी होती थी। भगवान बुद्ध के चार पीढ़ी तक के वंश पर विचार किया जाए तो उनके नाना दादा इन सबके बीच में आपस में विवाह हुआ। उदाहरण के लिए भगवान बुद्ध की पत्नी यशोधरा उनकी फुफेरी बहन थी। इस बारे में कोई भी व्यक्ति बौद्ध ग्रन्थों को पढ़कर इसको प्रमाणित कर सकता है।

अब हम वापस लौटते हैं अपने विषय बिंदु पर कि भारत में मूर्ति पूजा बौधों का प्रचलित किया हुआ क्यों आज तक प्रचलित है।

शंकराचार्य के बाद भी मूर्तिपूजा क्यों?

हजारों साल के बौद्ध शासन के पश्चात दक्षिण भारत में एक प्रकांड विद्वान आदि शंकराचार्य उत्पन्न हुए। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने 9 वर्ष की उम्र में ही वैराग्य उत्पन्न होने से घर छोड़कर संयासी बन गए। सन्यास के बाद सारे वेद वेदांगों का अध्ययन किया। बौद्ध काल में नास्तिकता के अत्यधिक प्रचार प्रसार होने पर लोगों में भोग विलास और सांसारिक लिप्तता में संलग्न जीवन की प्रधानता बढ़ गई थी। संसार की दुर्गति को देखकर आदि शंकर को अत्यधिक दुख हुआ। उन्होंने विचार किया कि कैसे बौद्धमत को पराभूत किया जाए, निष्कर्ष निकाला कि बौधों से शास्त्रार्थ किया जाए। वह उड़ीसा के राजा सुधन्वा के पास गए और उन्होंने बौद्ध विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए आग्रह किया। उन्होंने शास्त्रार्थ के द्वारा बौद्ध मत को परास्त कर दिया। जब बौध मत का पराजय हुआ तो राजा के आदेश पर बुद्ध और अन्य बौद्ध प्रतिमाओं को जल में विसर्जित किया जाने लगा। कई प्रतिमाओं को जमीन में गाड़ दिया गया और कई मंदिरों को नष्ट कर दिया गया। आदि शंकर के आग्रह पर मंदिरों को नष्ट होने से बचाया गया और वहां पर वेद का पठन-पाठन कार्य आरंभ हो गया। शङ्कर की विद्वत्ता से प्रभावित हो कर कई बौद्ध और जैन साधु सन्यासी आदि शंकर के शिष्य बन गए। 

उसमें एक साधु जो ऊपर से तो आदि शंकर का शिष्य बन गया था और भीतर से कपट भाव रखता था उसने विषमिश्रित भोजन खिलाकर आदि शंकर का प्राण हरण कर लिया।

आदि शंकर के देह अवसान होने के पश्चात पुराने पाखंड जो लोक में हजारों वर्षों से व्याप्त था वह प्रचलित रह गए।

आदि शंकर ने अपने सूझबूझ से भारत के चारों कोने पर वैदिक संस्कृति को स्थापित करने के लिए चार मठ की स्थापना की ताकि वेद और वैदिक संस्कृति का प्रचार प्रसार कार्य हो सके।

दुर्भाग्यवश आदि शंकर की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात वहां पर उन्हीं के पद को धारण कर शंकराचार्य बन कर मठों के अधिकारी बन गए और ये लोग आदिशंकर के नाम पर अपनी पूजा सत्कार करने कराने लगे। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि आदि शंकराचार्य को समाज में बहुत प्रतिष्ठा मिल गई थी अतः उनके पद को धारण कर ये लोग अपनी प्रतिष्ठा कराने लगे।

इस तरह भारत में बौधों के मूर्ति पूजा के कार्य को रुकवाने के प्रयत्न को आदि शंकर के शिष्यों ने ही बाधित कर दिया, इस संबंध में प्रमाण स्वरूप आदि शंकर की लिखी हुई पुस्तक परापूजा पठनीय है। परा-पूजा पुस्तक में आदि शंकर ने स्पष्ट रूप से मूर्ति पूजा का निषेध किया है।

क्रमशः लेख आगे जारी

© अजीत कुमार, सर्वाधिकार सुरक्षित।

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