मनुष्य का जीवन ज्ञान कर्म और उपासना का समुच्चय है। इनमें से किसी भी एक को अधिक या कम महत्त्व नहीं दिया जा सकता है। कर्म और उपासना का क्या अर्थ है इसको भी इस लेख में आगे समझेंगे। पहले ज्ञान की बात करते हैं जो आपके प्रश्न का केन्द्र है।
बिना सम्यक ज्ञान के सम्यक कर्म की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। यही कारण है कि जन्म के उपरांत बालक को सबसे पहले शिक्षा के लिए पाठशाला में भेजा जाता है ताकि वह पहले सत्य ज्ञान कर ले। इसके लिए जीवन के 25 वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम के नाम से सुरक्षित किया गया है। ज्ञान ही जीवन मे कर्म उपासना का आधार है।
बिना ज्ञान के व्यक्ति द्विज नहीं माना जाता है। द्विज अर्थात जिसका दो बार जन्म हो। बिना शिक्षा के मनुष्य पशुवत होता है। मनुर्भवः अर्थात मनुष्य बनने के लिए शिक्षा आवश्यक है।
लेकिन केवल ज्ञान के चक्कर में पड़े रहना अथवा ज्ञान को ही सर्वोपरि मानने से शास्त्र में मनाही है। इस बात को ऐसे समझते हैं।
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥
—यजुः॰ अ॰ 40। मं॰ 14॥
जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ ही साथ जानता है वह अविद्या अर्थात् कर्मोपासना से मृत्यु को तर के विद्या अर्थात् यथार्थ ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है।
यहाँ स्पष्ट रूप से वेदाज्ञा है कि जो विद्या के साथ साथ अविद्या को भी अच्छे से जानता है वही मोक्ष प्राप्त करता है।
कर्म और उपासना को अविद्या क्यों कहते हैं? यह समझते हैं।
जैसा कि हमने देखा कि संसार में तीन चीज ज्ञान कर्म और उपासना है तो ज्ञान के अतिरिक्त जो बचता है वह कर्म और उपासना। उपासना से अभिप्राय कर्म के फल से है। कर्म के बाद हम उपासना/फल को प्राप्त करते है। उपासना अर्थात किसी वस्तु के नजदीक होना। कर्म के बाद हम फल के नजदीक स्थित होते हैं क्योंकि कर्म के बाद उसका फल निश्चित है।
ज्ञान को विद्या कहें तो जो ज्ञान नहीं है अर्थात ( कर्म+उपासना ) को अविद्या कहेंगे।
स्वामी दयानंद सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश के 9वें समुल्लास में लिखते हैं-
जिस से पदार्थों का यथार्थ स्वरूप बोध होवे वह विद्या और जिस से तत्त्वस्वरूप न जान पड़े अन्य में अन्य बुद्धि होवे वह अविद्या कहाती है। अर्थात् कर्म और उपासना अविद्या इसलिये है कि यह बाह्य और अन्तर क्रियाविशेष नाम है ज्ञानविशेष नहीं। इसी से मन्त्र में कहा है कि विना शुद्ध कर्म और परमेश्वर की उपासना के मृत्यु दुःख से पार कोई नहीं होता। अर्थात् पवित्र कर्म, पवित्रोपासना और पवित्र ज्ञान ही से मुक्ति और अपवित्र मिथ्याभाषणादि कर्म पाषाणमूर्त्यादि की उपासना और मिथ्याज्ञान से बन्ध होता है।
कोई भी मनुष्य क्षणमात्र भी कर्म, उपासना और ज्ञान से रहित नहीं होता। इसलिये धर्मयुक्त सत्यभाषणादि कर्म करना और मिथ्याभाषणादि अधर्म को छोड़ देना ही मुक्ति का साधन है।
यजुर्वेद का एक अन्य मन्त्र केवल ज्ञानरत होने को सबसे बड़े बन्धन के रूप में व्यक्त करता है
अन्धं तम: प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रता:।। यजु; 40.12
जो मनुष्य अविद्या की उपासना करते हैं वे अज्ञान स्वरूप धोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं और जो मनुष्य विद्या में रत हैं (अर्थात् ज्ञान के मिथ्याभिमान में मत हैं) वे उससे से भी अधिक गहन अन्धकार में प्रवेश करते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि प्रतिदिन के जीवनचर्या में योग, अभ्यास, स्वाध्याय, व्यायाम, प्राणायाम, लोकाचार इत्यादि में लिप्त रहते हुए ही विद्या में रत रहना चाहिए। केवल ज्ञान को ही मुक्ति मानना सबसे बड़ा बन्धन है।
पूरा लेख ध्यानपूर्वक पढ़ने के लिए धन्यवाद।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें