भारतीय साहित्य, दर्शन और संवाद परंपरा में 'महापुरुष' शब्द का प्रयोग अत्यंत सामान्य और सम्मानजनक है। किसी महान संत, विचारक, गुरु या ऋषि को यह उपाधि दी जाती रही है। लेकिन एक रोचक तथ्य यह है कि 'महास्त्री' जैसा कोई शब्द भारतीय भाषाई परंपरा में प्रायः नहीं मिलता, न ही साहित्यिक प्रयोगों में यह स्थापित है। किसी किसी ने इसका कारण 'पुरुष प्रधान समाज' को माना है, किंतु यह विचार न तो भाषिक है और न ही तर्कसंगत।
वस्तुतः इस प्रश्न को भाषाशास्त्र, व्युत्पत्तिशास्त्र और दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है न कि 'पुरुष प्रधान समाज' को कारण मानकर तथ्य और तर्कविहीन मनोरचित व्याख्या करना।
भारतीय सभ्यता संस्कृति में तो नारी को अत्यन्त ही उच्च स्थान प्रदान किया गया है और उनके लिए महादेवी, महाशक्ति, मातृशक्ति, भगवती इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया गया है। अतः यह बात तो स्वसंस्कृति के प्रति कुंठा प्रतीत होता है जब कोई यह माने की महास्त्री शब्द के प्रयोग का अभाव के पीछे पुरुष प्रधान समाज और उसकी रूढ़िवादी मानसिकता कारण है। हमें आक्षेप तो औरत शब्द पर करना चाहिए जिसका शाब्दिक अर्थ अत्यंत ही निंदनीय और लज्जाजनक है, लेकिन लोक में प्रचलित है। यहाँ उसका अर्थ लिखना भी उचित नहीं है।
विचारणीय है कि संस्कृत में पुरुषार्थ का अर्थ केवल पुरुष के लिए नहीं है। पुरुषार्थ गुण है जो मनुष्यमात्र को धारण करना है। इसी तरह के अन्य उदाहरण भी दिए जा सकते हैं। वीर और वीरांगना क्रमशः नर नारी के साथ प्रयुक्त किया जाता है लेकिन दोनों शब्दो की उत्पत्ति वीर्य से है जिसका अर्थ ओज व पराक्रमजन्य से है। जबकि रूढ़ अर्थ में यह नर के साथ सम्बन्धित किया जाता है।
'महापुरुष' शब्द की रचना और अर्थ
‘महापुरुष’ शब्द संस्कृत के ‘महा’ (महान) और ‘पुरुष’ (व्यक्ति/आत्मा/कर्ता) से मिलकर बना है।
यहाँ 'पुरुष' शब्द का प्रयोग जैविक लिंग (male) के रूप में नहीं, बल्कि दार्शनिक दृष्टिकोण से चेतन सत्ता के रूप में हुआ है। वेद के पुरुषसूक्त की व्याख्या आप कैसे कर सकते हैं? क्या वहाँ पुरूष का अर्थ नर से है?
'पुरुष' की व्युत्पत्ति:
“पुरं शेते इति पुरुषः” — जो ‘पुर’ (शरीर/नगर) में निवास करता है।
इसका अर्थ है — चेतन आत्मा, कर्तृत्वशील सत्ता, जो स्त्री-पुरुष दोनों में समान रूप से है।
'महा' उपसर्ग का प्रयोग:
संस्कृत में 'महा' उपसर्ग उस संज्ञा के साथ जुड़ता है जो:
- गुण, शक्ति, चेतना या सत्ता को दर्शाए
- ध्वन्यात्मक और व्याकरणिक दृष्टि से अनुकूल हो
जैसे: महाकवि, महाशक्ति, महादेवी, महाकाल, महाकाश आदि।
इस प्रकार 'महापुरुष' शब्द का प्रयोग किसी महान चेतन सत्ता वाले व्यक्ति के लिए हुआ, न कि केवल पुरुष-लिंग वाले व्यक्ति के लिए।
‘महास्त्री’ शब्द क्यों नहीं प्रचलित है?
अब प्रश्न यह है कि यदि 'महापुरुष' प्रचलित है तो 'महास्त्री' क्यों नहीं?
इसका उत्तर समाजशास्त्र में नहीं, भाषा-विज्ञान में मिलता है।
1. 'स्त्री' शब्द लिंगवाचक है, भूमिका वाचक नहीं
‘स्त्री’ एक स्पष्ट रूप से लिंग-सूचक शब्द है — नारी जाति के लिए।
जबकि 'पुरुष' शब्द कई बार कर्तृत्व, आत्मा, और व्यक्ति के रूप में प्रयुक्त होता है, जैसे – पुरुषार्थ, पुरुषसूक्त, पुरुषोत्तम आदि।
2. 'महास्त्री' का ध्वन्यात्मक एवं व्याकरणिक अवरोध
‘महा’ और ‘स्त्री’ को जोड़ने पर एक कठिन संयुक्त ध्वनि (हस् + स्त्र) बनती है — 'महास्त्री'।
संस्कृत में इस प्रकार का संयोजन स्वाभाविक रूप से स्वीकार्य नहीं है, इसलिए इसका प्रयोग स्थापित नहीं हो सका।
3. स्त्रियों के लिए अन्य उपयुक्त शब्द पहले से हैं
संस्कृत और हिंदी में नारी के लिए महानता सूचक अनेक शब्द पहले से मौजूद हैं:
महादेवी, महाशक्ति, महाभागा, आर्या, सती, वीरांगना, जननी, आदि।
इनका प्रयोग स्त्री की महत्ता और गरिमा दर्शाने के लिए होता रहा है — 'महास्त्री' की आवश्यकता ही नहीं रही।
‘महापुरुष’ के लिंगनिरपेक्ष प्रयोग के उदाहरण
भारतीय परंपरा में 'महापुरुष' शब्द का प्रयोग कई बार उन संतों, तपस्वियों या आत्माओं के लिए भी हुआ जो लिंगातीत माने गए, या जिनका व्यक्तित्व लिंग से परे था।
उदाहरण:
- संत अक्क महादेवी (स्त्री होते हुए भी उनके लिए ‘योगी’ और ‘महापुरुष’ जैसे शब्द प्रयुक्त हुए)
- महापुरुष कबीर, जिनका व्यक्तित्व नारी-पुरुष सीमाओं से परे देखा गया।
- चार पुरुषार्थ प्रत्येक मनुष्य के लिए है न कि केवल नर के लिए। नर नारी दोनों को ही पुरुषार्थ करना है। ध्यान दीजिए कि पुरुषार्थ गुण हैं जो स्त्री पुरुष सभी में होना चाहिए।
निष्कर्ष
'महापुरुष' शब्द का प्रयोग कोई सामाजिक भेदभाव या पुरुष-प्रधानता का परिणाम नहीं है, बल्कि यह संस्कृत भाषा की व्याकरणिक परंपरा, व्युत्पत्तिशास्त्र और दर्शन में 'पुरुष' शब्द की व्यापकता पर आधारित है।
'महास्त्री' शब्द नहीं बना क्योंकि:
- 'स्त्री' शब्द स्वयं लिंगसूचक है, न कि चेतना या भूमिका-सूचक
- व्याकरणिक और ध्वन्यात्मक कारणों से यह संयोजन सहज नहीं
- नारी के लिए पहले से ही विशिष्ट, गरिमामय शब्द प्रचलित हैं, जिनमें ‘महा’ उपसर्ग या उसके तुल्य भाव समाहित हैं
इस प्रकार, यह स्पष्ट होता है कि ‘महापुरुष’ शब्द का प्रयोग भाषा की तर्कसंगत और दार्शनिक परंपरा का परिणाम है, न कि किसी सामाजिक पक्षपात का।
कुछ अन्य बातें:
भाषा अर्थ, प्रयोग और संतुलन की प्रक्रिया से जन्मती है — 'महापुरुष', ईमानदार और औरत जैसे शब्द इसका जीवंत उदाहरण है। औरत जैसे निंदनीय शब्द को समाज ने स्वीकार क्यों किया है? इसी तरह, ईमानदार शब्द का विश्लेषण कीजिए तो यह ईमान वालो के लिए है। अब ईमान का अर्थ बताने की आवश्यकता नहीं है। मुसलमान और ईमान की जोड़ी से इसको समझा जा सकता है। इसकी जगह सत्यनिष्ठ, कर्त्तव्यपरायण, निष्ठावान जैसे अर्थपूर्ण शब्दों को किस लिए जगह नहीं दिया जाता? क्या इसके पीछे भी पुरुष प्रधान समाज को कारण मानते हैं या अरबी दासता के प्रति स्टॉकहोम सिंड्रोम।
© अजीत कुमार, सर्वाधिकार सुरक्षित।
शनिवार २ अगस्त २०२५
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