शनिवार, 5 जनवरी 2013

व्यर्थ का अर्थ

विरोधाभास
- by Shrishesh
रात का दिन की है और रेत की है नदिया माँझी है किनारे पर और नाव बीच नदिया बड़े बाबू की किताब में है कोरी-कोरी बतिया मानो दुल्हन ब्याही गई बिन पंडित बिन पिया। पूरब के पश्चिम के पढ़-पढ़ फिलिस्पिया बुद्धिजीवी लिखने बैठे हैं एक नया प्रिन्सिपिया। कबीर के अबीर अब नहीं होते होली में, प्रेम के प्रसाद अब नहीं मिलते बोली में। मानव भूखा-प्यासा है सोने और नगीने को, जीवन रूठा बैठा है आज किसी कोने को। आओ हिलमिल उसे मनाये योग-मनोभाव से जीवन को अखंड बनाये पूनीत कर्म स्वभाव से। (अतीत के झरोखों से)
© अजीत कुमार, सर्वाधिकार सुरक्षित।

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