विरोधाभास
रात का दिन की है
और रेत की है नदिया
माँझी है किनारे पर
और नाव बीच नदिया
बड़े बाबू की किताब में है
कोरी-कोरी बतिया
मानो दुल्हन ब्याही गई
बिन पंडित बिन पिया।
पूरब के पश्चिम के
पढ़-पढ़ फिलिस्पिया
बुद्धिजीवी लिखने बैठे हैं
एक नया प्रिन्सिपिया।
कबीर के अबीर
अब नहीं होते होली में,
प्रेम के प्रसाद
अब नहीं मिलते बोली में।
मानव भूखा-प्यासा है
सोने और नगीने को,
जीवन रूठा बैठा है
आज किसी कोने को।
आओ हिलमिल उसे मनाये
योग-मनोभाव से
जीवन को अखंड बनाये
पूनीत कर्म स्वभाव से।
(अतीत के झरोखों से)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें