बुधवार, 12 जून 2013

अवकाश की क्रांति से

क्रांति
- by Shrishesh
कुछेक क्षणान्तर में, अशांत हो गए दो जन, प्रेमालाप करते करते । टूट पड़े एक दुजे पर, व्यंग्य वक्रोक्ति, उपमा-उपमेय के उपालम्भ से, चीख-चीत्कार से, गालियों की बौछार से, और अशांत करते-करते बेचारे ! स्वयमेव अशांत हो गए। भृकुटि उठाते-गिराते, हाथ नचाते-घुमाते, पानी पी कर लड़ते-लड़ते, बेचारे कंठ आकंठ हो गए । कुछेक क्षणान्तर ने, दो जन को चिंतन के निमित्त मजबूर किया अवकाश की क्रांति से बाह्य भ्रान्ति निर्मूल है तत्पश्चात, एक नीरवता विद्यमान है सूक्ष्म ब्रह्माण्ड के आभ्यांतर एवं बहिः । किन्तु, इस नीरवता में भी एक झंकार है जो सप्त स्वर से भिन्न है श्रीशेष (अतीत के झरोखों से)
© अजीत कुमार, सर्वाधिकार सुरक्षित।

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